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168 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

जग्गो–ने जाने सबों ने कौन-सी बूटी सुंघा दी। भैया तो ऐसे न थे। दिन-भर अम्मां-अम्मा करते रहते थे। दुकान पर सभी तरह के लोग आते हैं, मर्द भी औरत भी। क्या मजाल कि किसी की ओर आंख उठाकर देखा हो।

देवीदीन-कोई बुराई न थी। मैंने तो ऐसा लड़का ही नहीं देखा। उसी धोखे में आ गए।

जालपा ने एक मिनट सोचने के बाद कहा-क्या उनको बयान हो गया?

'हां, तीन दिन बराबर होता रहा। आज खतम हो गया।'

जालपा ने उद्विग्न होकर कहा-तो अब कुछ नहीं हो सकता? मैं उनसे मिल सकती हैं?

देवीदीन जालपा के इस प्रश्न पर मुस्करा पड़ा। बोला- हां, और क्या, जिसमें जाकर भंडाफोड़ कर दो, सारा खेल बिगाड़ दो ! पुलिस ऐसी गधी नहीं है। आजकल कोई भी उनसे नहीं मिलने पाता। कड़ा पहरा रहता है।

इस प्रश्न पर इस समय और कोई बातचीत न हो सकती थी। इस गुत्थी को सुलझाना आसान न था। जालपा ने गोपी को बुलाया। वह छज्जे पर खड़ा सड़क का तमाशा देख रहा था। ऐसा शरमा रहा था, मानो ससुराल आया हो। धीरे-धीरे आकर खड़ा हो गया।

जालपा ने कहा-मुंह-हाथ धोकर कुछ खा तो लो। दही तो तुम्हें बहुत अच्छा लगता गोपी लजा कर फिर बाहर चला गया।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा-हमारे सामने न खाएंगे। हम दोनों चले जाते हैं। तुम्हें जिसशचीज की जरूरत हो,हमसे कह देना,बहूजी । तुम्हारा ही घर है। भैया को तो हम अपना ही समझते थे। और हमारे कौन बैठा हुआ है।

जग्गो ने गर्व से कहा-वह तो मेरे हाथ का बनाया खा लेते थे। गरूर तो छू नहीं गया था।

जालपा ने मुस्कराकर कहा-अब तुम्हें भोजन न बनाना पड़ेगा, मांजी, मैं बना दिया करूंगी।

जग्गो ने आपत्ति की-हमारी बिरादरी में दूसरों के हाथ का खाना पना है,बहू। अब चार दिन के लिए बिरादरी में नक्कू क्या बनू ।

जालपा-हमारी बिरादरी में भी तो दूसरों का खाना मना है।

जग्गो–यहां तुम्हें कौन देखने आता है। फिर पढ़े-लिखे आदमी इन बातों का विचार भी तो नहीं करते। हमारी बिरादरी तो मूरख लोगों की है।

जालपा–यह तो अच्छा नहीं लगता कि तुम बाओं और मैं खाऊ। जिसे बहू बनाया उसके हाथ का खाना पड़ेगा। नहीं खाना था, तो बहू क्यों बनाया।

देवीदीन ने जागो की ओर प्रशंसा-सूचक नेत्रों से देखकर कहा-बहू ने बात पते की कह दी। इसका जवाब सोचकर देना। अभी चलो। इन लोगों को जरा आराम करने दो।

दोनों नीचे चले गए,तो गोपी ने आकर कहा–भैया इसी खटिक के यहां रहते थे क्या? खटिक ही तो मालूम होते हैं।

जालपा ने फटकारकर कहा-खटिक हों या चमार हों, लेकिन हमसे और तुमसे सौगुने अच्छे हैं। एक परदेशी आदमी को छ: महीने तक अपने घर में ठहराया, खिलाया, पिलाया।