पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/१८७

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जानती कि एक दिन यह कठिन समस्या उसके सामने आएगी,तो वह चाहे रुपये को लुटा देती यो दान कर देती,पर संपत्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंडितजी की ऐसी कौन बहुत बड़ी आमदनी थी। क्या गर्मियों में वह शिमले न जा सकती थी? क्या दो-चार और नौकर न रक्खे जा सकते थे? अगर वह गहने ही बनवाती,तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी,पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया। केवल यही स्वप्न देखने के लिए। यही स्वप्न। इसके सिवा और था ही क्या । जो कल उसका था उसकी ओर आज आंखें उठाकर वह देख भी नहीं सकता। कितना महंगा था वह स्वप्न! हां,वह अब अनाथिनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी,आज उसे खुद भीख मांगनी पड़ेगी और कोई आश्रय नहीं । पहले भी वह अनाथिनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वामिनी समझ रही थी। अब उस भ्रम को सहारा भी नहीं रहा ।

सहसा विचारों ने पलटा खाया। मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूं क्यों दूसरों के द्वार पर भीख मांगू? संसार में लाखों ही स्त्रियां मेहनत-मजदूरी करके जीवन का निर्वाह करती हैं। क्या मैं कोई काम नहीं कर सकती? मैं कपड़ा क्या नहीं सी सकती? किसी चीज की छोटी-मोटी दुकान नहीं रख सकती? लड़के भी पढ़ा सकती हैं। यही न होगा, लोग हंसेंगे,मगर मुझे उस हंसी कि क्या परवा। वह मेरी हंसी नहीं है, अपने समाज की हंसी है।

शाम को द्वार पर कई ठेले वाले आ गए। मणिभूषण ने आकर कहा-चाचीजी, आप जोजो चीजें कहें लदवाकर भिजवा दें। मैंने एक मकान ठीक कर लिया है।

रतन ने कहा-मुझे किसी चीज की जरूरत नहीं। न तुम मेरे लिए मकान लो। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मैं हाथ से भी नहीं छू सकती। मैं अपने घर से कुछ लेकर नहीं आई थी। उसी तरह लौट जाऊंगी।

मणिभूषण ने लज्जित होकर कहा-आपका सब कुछ है, यह आप कैसे कहती हैं कि आपका कोई अधिकार नहीं। आप वह मकान देख लें। पंद्रह रुपया किराया है। मैं तो समझता हुँ आपको कोई कष्ट न होगा। जो-जो चीजें आप कहें, मै वहां पहुंचा दूँ।

रतन ने व्यंग्यमय आंखों से देखकर कहा-तुमने पंद्रह रुपये का मकान मेरे लिए व्यर्थ लिया | इतना बड़ा मकान लेकर मैं क्या करूंगी ! मेरे लिए एक कोठरी काफी है, जो दो रुपये में मिल जायगी। सोने के लिए जमीन है ही। दया का बोझ सिर पर जितना कम हो, उतना ही अच्छा !

मणिभूषण ने बड़े विनम्र भाव से कहा-आखिर आप चाहती क्या हैं? उसे कहिए तो ।

रतन उत्तेजित होकर बोली-मैं कुछ नहीं चाहती। मैं इस घर का एक तिनका भी अपने साथ न ले जाऊंगी। जिस चीज पर मेरा कोई अधिकार नहीं, वह मेरे लिए वैसी ही है जैसी किसी गैर आदमी की चीज। मैं दया की भिखिरिणी न बनूंगी। तुम इन चीजों के अधिकारी हो, ले जाओ। मैं जरा भी बुरा नहीं मानती । दया की चीज न जबरदस्ती ली जा सकती है, न जबरदस्ती दी जा सकती है। संसार में हजारों विधवाएं हैं, जो मेहनत-मजूरी करके अपना निर्वाह कर रही हैं। मैं भी वैसे ही हूं। मैं भी उसी तरह मजूरी करूंगी और अगर न कर सकूंगी, तो किसी गड्ढे में डूब मरूंगी। जो अपना पेट भी न पाल सके, उसे जीते रहने का,