पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/२२८

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देवी ने बैलों को गाड़ी से खोलकर खूटे से बांध दिया और दयानाथ से बोला-अभी भैया नहीं लौटे?

दयानाथ ने डांठों को समेटते हुए कहा-अभी तो नहीं लौटे। मुझे तो अब इनके अच्छे होने की आशा नहीं है। जमाने का फेर है। कितने सुख से रहती थीं, गाड़ी थी, बंगला था, दरजनों नौकर थे। अब यह हाल है। सामान सब मौजूद है, वकील साहब ने अच्छी संपत्ति छोड़ी थी, मगर भाई-भतीजों ने हड़प ली।

देवीदीन-भैया कहते थे. अदालत करतीं तो सब मिल जाता; पर कहती हैं, मैं अदालत में झूठ न बोलूंगी। औरत बड़े ऊंचे विचार की है।

सहसा जागेश्वरी एक छोटे-से शिशु को गोद में लिए हुए एक झोंपड़े से निकली और बच्चे को दयानाथ की गोद में देती हुई देवीदीन से बोली-भैया, जरा चलकर रतन को देखो,जाने कैसी हुई जाती है। जोहरा और बहू, दोनों रो रही हैं। बच्चा न जाने कहां रह गए।

देवीदीन ने दयानाथ से कहा-चलो लाली, देखें।

जागेश्वरी बोली—यह जाकर क्या करेंगे, बीमार को देखकर तो इनकी नानी पहले ही मर जाती है।

देवीदीन ने रतन की कोठरी में जाकर देखा। रतन बांस की एक खाट पर पड़ी थी। देह सूख गई थी। व सूर्यमुखी का-सा खिला हुआ चेहरा मुरझाकर पीला हो गया था। वह रंग जिन्होंने चित्र को जीवन और स्पंदन प्रदान कर रखा था, उड़ गए थे, केवल आकार शेष रह गया था। वह श्रवण-प्रिय, प्राणप्रद, विकास और आह्लाद में डूबा हुआ संगीत मानो आकाश में विलीन हो गया था, केवल उसकी क्षीण उदास प्रतिध्वनि रह गई थी। जोहरा उसके ऊपर झुकी उसे करुण, विवश, कातर, निराश तथा तृष्णामय नेत्रों से देख रही थी। आज साल - भर से उसने रतन की सेवा-शुश्रूषा में दिन को दिन और रात को रात न समझा था। रतन ने उसके साथ जो स्नेह किया था, उस अविश्वास और बहिष्कार के वातावरण में जिस खुले नि:संकोच भाव से उसके साथ बहनापा निभाया था, उसका एहसान वह और किस तरह मानती। जो सहानुभूति उसे जालपा से भी न मिली, वह रतन ने प्रदान की। दु:ख और परिश्रम ने दोनों को मिला दिया,दोनों की आत्माएं संयुक्त हो गईं। यह घनिष्ठ स्नेह उसके लिए एक नया ही अनुभव था,जिसकी उसने कभी करना भी ने की थी। इस मैत्री में उमर्क वेचित हदय ने पति- प्रेम और पुत्र-स्नेह दोनों ही पा लिया।

देवीदीन ने रतन के चेहरे की ओर सचिंत नेत्रों से देखा, तब उसकी नाड़ी हाथ में लेकर पूछा-कितनी देर से नहीं बोलीं?

जालपा ने आंखें पोंछकर कही-अभी तो बोलती थीं। एकाएक आंखें ऊपर चढ़ गईं और बेहोश हो गईं। वैद्यजी को लेकर अभी तक नहीं आए?

देवीदीन ने कहा-इनकी दवा वैद्य के पास नहीं है।

यह कहकर उसने थोड़ी-सी राख़ ली, रतन के सिर पर हाथ फेरा, कुछ मुंह में बुदबुदाया और एक चुटकी राख उसके माथे पर लगा दी। तब पुकारा–रतन बेटी, आंखें खोलो।

रतन ने आंखें खोल दीं और इधर-उधर सकपकाई हुई आंखों से देखकर बोली-मेरी