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248 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

रेणुका ने कहा--तुझे ससुराल इतनी प्यारी हो गई?

सुखदा लज्जित होकर बोली-क्या करूं अम्मां, ऐसी उलझन में पड़ी हूं कि कुछ सूझता ही नहीं। बाप-बेटे में बिल्कुल नहीं बनती। दादाजी चाहते हैं, वह घर का धंधा देखें। वह कहते हैं, मुझे इस व्यवसाय से घृणा है। मैं चली जाती, तो न जाने क्या दशा होती। मुझे बराबर खटका लगा रहता है कि वह देश-विदेश की राह न लें। तुमने मुझे कुएं में ढकेल दिया और क्या कहूं?

रेणुका चिंतित होकर बोलीं-मैंने तो अपनी समझ में घर-वर दोनों ही देखभाल कर विवाह किया था, मगर तेरी तकदीर को क्या करती? लड़के से तेरी अब पटती है, या वही हाल है?

सुखदा फिर लज्जित हो गई। उसके दोनों कपोल लाल हो गए। सिर झुकाकर बोली-उन्हें अपनी किताबों और सभाओं से छुट्टी नहीं मिलती।

"तेरी जैसी रूपवती एक सीधे-सादे छोकरे को भी न संभाल सकी? चाल-चलन का कैसा है?"

सुखदा जानती थी, अमरकान्त में इस तरह की कोई दुर्वासना नहीं है, पर इस समय वह इस बात को निश्चयात्मक रूप से न कह सकी। उसके नारीत्व पर धब्बा आता था। बोली-मैं किसी के दिल का हाल क्या जानूं, अम्मां । इतने दिन हो गए, एक दिन भी ऐसा न हुआ होगा कि कोई चीज लाकर देते। जैसे चाहूं रहूं, उनसे कोई मतलब ही नहीं।

रेणुका ने पूछा-तू कभी कुछ पूछती है, कुछ बनाकर खिलाती है, कभी उसके सिर में तेल डालती है।

सुखदा ने गर्व से कहा-जब वह मेरी बात नहीं पूछते, तो मुझे क्या गरज पड़ी है । वह बोलते हैं, ता मैं बोलती हूं। मुझसे किसी की गुलामी नहीं होगी।

रेणुका ने ताड़ना दी-बेटी, बुरा न मानना, मुझे बहुत-कुछ तेरा ही दोष दीखता है। तुझे अपने रूप का गर्व है। तू समझती है, वह तेरे रूप पर मुग्ध होकर तेरे पैरों पर सिर रगड़ेगा। ऐस मर्द हाते हैं, यह मैं जानती हूं, पर वह प्रेम टिकाऊ नहीं होना। न जाने तू क्यों उसस तनी रहती है? मुझे तो वह बड़ा गरीब और बहुत ही विचारशील मालूम होता है। सच कहती हूँ, मुझे उस पर दया आती है। बचपन में तो बेचारे की मां मर गई। विमाता मिली, वह डाइन। बाप हो गया शत्रु। घर को अपना घर न समझ सका। जो हृदय चिंता भार से इतना दबा हुआ हो, उसे पहले स्नेह और सेवा से पीला करने के बाद तभी प्रेम का बीज बोया जा सकता है।

सुखदा चिढ़कर बोली-वह चाहते हैं, मैं उनके साथ तपस्विनी बनकर रहूं। रूखा- सूखा खाऊं, मोटा-झोटा पहनूं और वह घर से अलग होकर मेहनत और मजूरी करें। मुझसे यह न होगा, चाहे सदैव के लिए उनसे नाता ही टूट जाय। वह अपने मन की करेंगे, मेरे आराम-तकलीफ को बिल्कुल परवाह न करेंगे, तो मैं भी उनका मुंह न तोहूंगी।

रेणुका ने तिरस्कार भरी चितवनों से देखा और बोली-और अगर आज लाला समरकान्त का दीवाला पिट जाय?

सुखदा ने इस संभावना की कभी कल्पना ही न की थी।