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26 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


जालपा-अच्छा,अबकी चलोगे तो दिखा दूंगी। आज तुम बाजार की तरफ गए थे कि नहीं?

रमा ने सिर झुकाकर कहा-आज तो फुरसत नहीं मिली।

जालपा-जाओ,मैं तुमसे न बोलूंगी! रोज हीले-हवाले करते हो।अच्छा,कल ला दोगे न?

रमानाथ का कलेजा मसोस उठा। यह चन्द्रहार के लिए इतनी विकल हो रही है। इसे क्या मालूम कि दुर्भाग्य इसका सर्वस्व लूटने का सामान कर रहा है। जिस सरल बालिका पर उसे अपने प्राणों को न्योछावर करना चाहिए था, उसी का सर्वस्व अपहरण करने पर वह तुला हुआ है! वह इतना व्यग्र हुआ,कि जी में आया, कोठे से कूदकर प्राणों का अंत कर दे।

आधी रात बीत चुकी थी। चन्द्रमा चोर की भांति एक वृक्ष की आड़ से झांक रहा था। जालपा पति के गले में हाथ डाले हुए निद्रा में मग्न थी। रमा मन में विकट संकल्प करके धीरे से उठा; पर निद्रा की गोद में सोए हुए पुष्प प्रदीप ने उसे अस्थिर कर दिया। वह एक क्षण खड़ा मुग्ध नेत्रों से जालपा के निद्रा-विहसित मुख की ओर देखता रहा। कमरे में जाने का साहस न हुआ। फिर लेट गया।

जालपा ने चौंककर पूछा-कहां जाते हो,क्या सबेरा हो गया?

रमानाथ-अभी तो बड़ी रात है।

जालपा--तो तुम बैठे क्यों हो?

रमानाथ-कुछ नहीं,जरा पानी पीने उठा था।

जालपा ने प्रेमातुर होकर रमा के गले में बांहें डाल दी और उसे सुलाकर कहा-तुम इस तरह मुझ पर टोना करोगे,तो मैं भाग जाऊंगी। न जाने किस तरह ताकते हो,क्या करते हो,क्या मंत्र पढ़ते हो कि मेरा मन चंचल हो जाता है। बासन्ती सच कहती थी,पुरुषों की आंख में टोना होता है।

रमा ने फूटे हुए स्वर में कहा-टोना नहीं कर रहा हूं,आंखों की प्यास बुझा रहा हूं।

दोनों फिर सोए,एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा चिंता में मग्न।

तीन घंटे और गुजर गए। द्वादशी के चांद ने अपना विश्व-दीपक बुझा दिया। प्रभात की शीतल-समीर प्रकृति को मद के प्याले पिलाती फिरती थी। आधी रात तक जागने वाला बाजार भी सो गया। केवल रमा अभी तक जाग रहा था। मन में भात-भांति के तर्क-वितर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता था और फिर लेट जाता था। आखिर जब चार बजने की आवाज कान में आई,तो घबराकर उठ बैठा और कमरे में जा पहुंचा। गहनों का संदूकचा आल्मारी में रखा हुआ था;रमा ने उसे उठा लिया,और थरथर कांपता हुआ नीचे उतर गया। इस घबराहट में उसे इतना अवकाश न मिला कि वह कुछ गहने छांटकर निकाल लेता।

दयानाथ नीचे बरामदे में सो रहे थे। रमा ने उन्हें धीरे-से जगाया,उन्होंने हकबकाकर पूछा-कौन?

रमा ने होंठ पर उंगली रखकर कहा-मैं हूं। यह संदूकची लाया हूं। रख लीजिए।

दयानाथ सावधान होकर बैठ गए। अभी तक केवल उनकी आंखें जागी थीं,अब चेतना भी जाग्रत हो गई। रमा ने जिस वक्त उनसे गहने उठा लाने की बात कही थी,उन्होंने समझा था कि यह आवेश में ऐसा कह रहा है। उन्हें इसका विश्वास ने आया था कि रमा जो कुछ कह रहा