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284:प्रेमचंद रचनावली-5
 

सलीम ने सकुचाते हुए कहा-मैं ऐसे मसले पर क्या बोलूंगा?

"क्यों, हर्ज क्या है? मेरे खयालात तुम्हें मालूम हैं। यह किराए की तालीम हमारे कैरेक्टर को तबाह किए डालती है। हमने तालीम को भी एक व्यापार बना लिया है। व्यापार में ज्यादा पूंजी लगाओ, ज्यादा नफा होगा। तालीम में भी खर्च ज्यादा करो, ज्यादा ऊंचा ओहदा पाओगे। मैं चाहता हूं, ऊंची-से-ऊंची तालीम सबके लिए मुआफ हो, ताकि गरीब-से-गरीब आदमी भी ऊंची-से-ऊंची लियाकत हासिल कर सके और ऊंचे-से-ऊंचा ओहदा पा सके। यूनिवर्सिटी के दरवाजे मैं सबके लिए खुले रखना चाहता हूं। सारा खर्च गवर्नमेंट पर पड़ना चाहिए। मुल्क को तालीम की उससे कहीं ज्यादा जरूरत है, जितनी फौज की।"

सलीम ने शंका की-फौज न हो, तो मुल्क की हिफाजत कौन करे?

डॉक्टर साहब ने गंभीरता के साथ कहा-मुल्क की हिफाजत करेंगे हम और तुम और मुल्क के दस करोड़ जवान जो अब बहादुरी और हिम्मत में दुनिया को किसी कौम से पीछे नहीं हैं। उसी तरह, जैसे हम और तुम रात को चोरों के आ जाने पर पुलिस को नहीं पुकारते, बल्कि अपनी-अपनी लकड़ियां लेकर घरों से निकल पड़ते हैं।

सलीम ने पीछा छुड़ाने के लिए कहा-मैं बोल तो न सकूँगा, लेकिन आऊंगा जरूर।

सलीम ने मोटर मंगवाई और दोनों आदमी कचहरी चले। आज वहां और दिनों से कहीं ज्यादा भीड़ थी,पर जैसे बिन दूल्हा की बारात हो। कहीं कोई शृखला न थी। सौ सौ, पचास-पचास को टोलियां जगह-जगह खड़ी या बैठी शून्य-दृष्टि से ताक रही थीं। कोई बोलने लगता था, तो सौ-दो सौ आदमी इधर-उधर से आकर उसे घेर लेते थे। डॉक्टर साहब को देखते ही हजारों आदमी उनकी तरफ दौड़े। डॉक्टर साहब मुख्य कार्यकर्ताओं को आवश्यक बाते समझाकर वकालतखाने की तरफ चले, तो देखा लाला समरकान्त सबको निमंत्रण-पत्र बांट रहे हैं। वह उत्सव उस समय वहां सबसे आकर्षक विषय था। लोग बड़ी उत्सुकता से पूछ रहे थे, कौन-कौन सी तवायफें बुलाई गई हैं? भाड़ भी हैं या नहीं? मांसाहारियों के लिए भी कुछ प्रबंध है? एक जगह दस-बारह सज्जन नाच पर वाद-विवाद कर रहे थे। डॉक्टर साहब को देखते ही एक महाशय ने पूछा-कहिए आप उत्सव में आएंगे, या आपको कोई आपत्ति है?

डॉ. शान्तिकुमार ने उपेक्षा- भाव से कहा-मेरे पास इससे ज्यादा जरूरी काम है।

एक साहब ने पूछा-आखिर आपको नाच से क्यों एतराज है।

डॉक्टर ने अनिच्छा से कहा इसलिए कि आप और हम नाचना ऐब समझते हैं। नाचना विलास की वस्तु नहीं. भक्ति और आध्यात्मिक आनंद की वस्तु है, पर हमने इसे लज्जास्पद बना रखा है। देवियों को विलास और भोग की वस्तु बनाना अपनी माताओं और बहनों का अपमान करना है। हम सत्य से इतनी दूर हो गए हैं कि उसका यथार्थ रूप भी हमें नहीं दिखाई देता। नृत्य जैसे पवित्र

सहसा एक युवक ने समीप आकर डॉक्टर साहब को प्रणाम किया। लंबा, दुबला- पतला आदमी था, मुख सूखा हुआ, उदास, कपड़े मैले और जीर्ण, बालों पर गर्द पड़ी हुई। उसकी गोद में एक साल भर का हष्ट-पुष्ट बालक था, बड़ा चंचल, लेकिन कुछ डरा हुआ।

डॉक्टर ने पूछा--तुम कौन हो? मुझसे कुछ काम है?