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308:प्रेमचंद रचनावली
 

सोलह


इधर कुछ दिनों से अमरकान्त म्युनिसिपल बोर्ड का मेंबर हो गया था। लाला समरकान्त को नगर में इतना प्रभाव था और जनता अमरकान्त को इतना चाहती थी कि उसे धेला भी नहीं खर्च करना पड़ा और वह चुन लिया गया। उसके मुकाबले में एक नामी वकील साहब खड़े थे। उन्हें उसके चौथाई वोट भी न मिले। सुखदा और लाला समरकान्त दोनों ही ने उसे मना किया था। दोनों ही उसे घर के कामों में फसाना चाहते थे। अब वह पढ़ना छोड़ चुका था और लालाजी उसके माथे सारे भार डालकर खुद अलग हो जाना चाहते थे। इधर-उधर के कामों में पड़कर वह घर का काम क्या कर सकेगा। एक दिन घर में छोटा-मोटा तूफान आ गया। लालाजी और सुखदा एक तरफ थे, अमर दूसरी तरफ और नैना मध्यस्थ थी।

लालाजी ने तोंद पर हाथ फेरकर कहो--धोबी का कुत्ता, घर का न घाटे का। भोर से पाठशाला जाओ, सांझ हो तो काग्रेस में बैठो, अब यह नया रोग और बेसाहने को तैयार हो। घर में लगी दो आग। सुखदा ने समर्थन किया -हां, अब तुम्हें घर का काम-धंधा देखना चाहिए या व्यर्थ के कामों में फंसना? अब तक तो यह था कि पढ़ रहे हैं। अब तो पढ़-लिख चुके हों। अब तुम्हें अपना घर संभालना चाहिए। इस तरह के काम तो वे उठावें, जिनके घर दो-चार दिमी हों। अकेले आदमी को घर से ही फुर्सत नहीं मिल सकतीं। ऊपर के काम कहां से करे?

अमर ने कहा-जिसे आप लोग रोग और ऊपर का काम और व्यर्थ का झझट कह रहे हैं, मैं उसे घर के काम से कम जरूरी नहीं समझता। फिर जब तक आप हैं, मुझे क्या चिंता? और सच तो यह है कि मैं इस काम के लिए बनाया ही नहीं गया! आदमी उसी काम में सफल होता है, जिसमें उसका जी लगता हो। लेन-देन, बनिज-व्यापार में मेरा जी बिल्कुल नहीं लगता। मुझे डर लगता है कि कहीं बना-बनाया काम बिगाड़ ने बैठूँ।

लालाजी को यह कथन सारहीन जान पड़ा। उनको पुत्र बनिज- व्यवसाय के काम में कच्चा हो, यह असंभव था। पोपले मुह में पान चबाते हुए बोले--यह सब तुम्हारी मुटमरदी है। और कुछ नहीं, मैं न होता, तो तुम क्या अपने बाल-बच्चों का पालन-पोषण न करते? तुम मुझी को पीसना चाहते हो। एक लड़के वह होते हैं, जो घर संभालकर बाप को छुट्टी देत हैं। एक तुम हो कि बाप की हड्रिया तक नहीं छोड़ना चाहते।

बात बढ़ने लगी। मुखदा ने मामला गर्म होते देख़ी, तो चुप हो गई। नैना उंगलियों से दोनों कान बंद करके घर में आ बैठी। यहां दोनों पहलवानों में मल्लयुद्ध होता रहा। युवक में चुस्ती थी, फुर्ती थी, लचक थी, बृढे में पेच था, दम था, रोब था। पुराना फिकैत बार-बार उसे दबाना चाहता था, पर जवान पट्टा नीचे से सरक जाता था। कोई हाथ, कई घात न चलता था।

अंत में लालाजी ने जामे से बाहर होकर कहा--तो बाबा, तुम अपने बाल-बच्चे लेकर अलग हो जाओ, मैं तुम्हारा बोझ नहीं संभाल सकता। इस घर में रहोगे, तो किराया और घर में जो कुछ खर्च पडेगा उसका आधा चुपके से निकालकर रख देना पड़ेगा। मैंने तुम्हारी जिंदगी भर का ठेका नहीं लिया है। घर को अपनी समझो, तो तुम्हारा सब कुछ है। ऐसा नहीं समझते,