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कर्मभूमि: 333
 

"मां-बाप भगत रहे होंगे।"

“हां, वह दोनों जने भगत थे।"

"अभी दोनों हैं न?"

"अम्मां तो मर गई, दादा हैं। उनसे मेरी नहीं पटती।"

"तो घर से रूठकर आए हो?"

"एक बात पर दादा से कहा-सुनी हो गई। मैं चला आया।"

"घरवाली तो है न?"

"हां, वह भी है।"

"बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। कभी चिट्ठी पत्तर लिखते हो?"

"उसे भी मेरी परवाह नहीं है, काकी! बड़े घर की लड़की है अपने भोग-विलास में मग्न है। मैं कहता हूं, चल किसी गांव में खेती-बारी करें। उसे शहर अच्छी लगता है।"

अमरकान्त भोजन कर चुका, तो अपनी थाली उठा ली और बाहर आकर मांजने लगा। सोनी भी पीछे-पीछे आकर बोली-तुम्हारी थाली मैं मांज देती, तो छोटी हो जाती?

अमर ने हंसकर कहा-तो क्या मैं अपनी थाली मांजकर छोटा हो जाऊंगा?

"यह तो अच्छा नहीं लगता कि एक दिन के लिए कोई आया तो थाली मांजने लगे। अपने मन में गे, कहां इस भिखारिन के यहां ठहरा?"

अमरकान्त के दिल पर चोट न लगे, इसलिए वह मुस्कराई।

अमर ने मुग्ध होकर कहा-भिखारिन के सरल, पवित्र स्नेह में जो सुख मिला, वह माता की गोद के सिवा और कहीं नहीं मिल सकता था, काकी।

उसने थाली धो-धाकर रख दी और दरी बिछाकर जमीन पर लेटने ही जा रहा था कि पंद्रह-बोस लड़कों का एक दल आकर खड़ा हो गया। दो-तीन लड़कों के सिवाय और किसी को देह पर साबुत कपड़े न थे। अमरकान्त कौतूहल से उठ बैठा, मानो कोई तमाशा होने वाला है।

जो बालक अभी दरी लेकर आया था, आगे बढ़कर बोला-इतने लड़के हैं हमारे गांव में। दो-तीन लड़के नहीं आए, कहते थे वह कान काट लेगे।

अमरकान्त ने उठकर उन सभी को कतार में खड़ा किया और एक-एक का नाम पूछा। फिर बोले-तुममें से जो-जो रोज हाथ-मुंह धोता है, अपना हाथ उठाए।

किसी लड़के ने हाथ न उड़ाया। यह प्रश्न किसी की समझ में न आया। अमर ने आश्चर्य से कहा-एँ तुममें से कोई रोज हाथ-मुंह नहीं धोता?

सभी ने एक-दूसरे की ओर देखा। दरी वाले लड़के ने हाथ उठा दिया। उसे देखते ही दूसरों ने भी हाथ उठा दिए।

अमर ने फिर पूछा-तुम में से कौन-कौन लड़के रोज नहाते हैं, हाथ उठाएं।

पहले किसी ने हाथ न उठाया। फिर एक-एक करके सबने हाथ उठा दि। इसलिए नहीं कि अभी रोज नहाते थे, बल्कि इसलिए कि वे दूसरों से पीछे न रहें।

सलोनी खड़ी थी। बोली--तू तो महीने भर में भी नहीं नहाता रे, जंगलिया। तू क्यों हाय उठाए हुए है?

जंगलिया ने अपमानित होकर कहा-तो गूदड़ ही कौन रोज नहाता है। भुलई, पुन्नू,