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340:प्रेमचंद रचनावली-5
 


यहां न आते, तो अच्छा होता।

अमर मुस्कराकर बोला-मैंने तुम्हारे साथ बुराई की है, मुन्नी?

मुन्नी कांपते हुए स्वर में बोली-बुराई नहीं की? जिस अनाथ बालक का कोई पूछने वाला न हो, उसे गोद और खिलौने और मिठाइयों का चस्का डाल देना क्या बुराई नहीं है? यह सुख पाकर क्या वह बिना लाड़-प्यार के रह सकता है?

अमर ने करुण स्वर में कहा-अनाथ तो मैं था, मुन्नी। तुमने मुझे गोद और प्यार का चस्का डाल दिया। मैंने तो रो-रोकर तुम्हें दिक ही किया है।

मुन्नी ने कलसा जमीन पर रख दिया और बोली-मैं तुमसे बातों में न जीतूंगी लाला, लेकिन तुम न थे, तब मैं बड़े आनंद से थी। घर का धंधा करती थी, रूखा-सूख़ा खाती थी और सो रहती थी। तुमने मेरा वह सुख छीन लिया। अपने मन में कहते होंगे, बड़ी निर्लज्ज नार है। कहो, जब मर्द औरत हो जाए, तो औरत को मर्द बनना ही पड़ेगा। जानती हूं, तुम मुझसे भागे-भागे फिरते हो, मुझसे गला छुड़ाते हो। यह भी जानती हूं, तुम्हें पा नहीं सकती। मेरे ऐसे भाग्य कहां? पर छोडूगी नहीं। मैं तुमसे और कुछ नहीं मांगती। बस, इतना ही चाहती हूं कि तुम मुझे अपनी समझो। मुझे मालूम हो कि मैं भी स्त्री हूं, मेरे सिर पर भी कोई है, मेरी जिंदगी भी किसी के काम आ सकती है।

अमर ने अब तक मुन्नी को उसी तरह देखा था, जैसे हरेक युवक किसी सुंदरी युवती को देखता है प्रेम से नहीं, केवल रसिक भाव से, पर आत्म-समर्पण ने उसे विचलित कर दिया। दुधार गाय के भरे हुए थनों को देखकर हम प्रसन्न होते हैं-इनमें कितना दूध होगा। केवल उसकी मात्रा का भाव हमारे मन में आ जाता है। हम गाय को पकड़कर दुहने के लिए तैयार नहीं हो जाते, लेकिन कटोरे में दृध का सामने आ जाना दूसरी बात है। अमर ने दूध के कटोरे की ओर हाथ बढ़ा दिया- आओ, हम-तुम कहीं चलें, मुन्नी । वहां में कहेगा यह मेरी

मुन्नी ने उसके मुंह पर हाथ रख दिया और बोली-बस, और कुछ न कहना। मर्द मई एक-से होते हैं। मैं क्या कहती थी, तुम क्या समझ गए? मैं तुमसे सगाई नहीं करूंगी, तुम्हारी रखेली भी नहीं बनूंगी। तुम मुझे अपनी चेरी समझते रहो, यही मेरे लिए बहुत हैं।

मुन्नी ने कलसा उठा लिया और कुएं की ओर चल दी। अमर रमणी--हृदय का यह अद्भुत रहस्य देखकर स्तभत हो गया था।

सहसा मुन्नी ने पुकारा–लाला, ताजा पानी लाई हूँ। एक लोटा लाऊ?

पीने की इच्छा होने पर भी अमर ने कहा-अभी तो प्यास नहीं है, मुन्नी।

चार

तीन महीने तक अमर ने किसी को खत न लिखा। कहीं बैठने की मुहलत हो न मिली। सकीना का हाल जानने के लिए हृदय तड़प-तड़पकर रह जाता था। नैना की भी याद आ जाती थी। बेचारी रो-रोकर मरी जाती होगी। बच्चे का हंसता हुआ फुल-सा मुखड़ा याद आता रहता था,