पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/३४४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
344:प्रेमचंद रचनावली-5
 


है कि लोग मुग्ध हुए जाते हैं।

इस जोड़ के बाद दूसरी जोड़ आता है। युवक गठीला जवान है, चौड़ी छाती, उस पर सोने की मुहर, कछनी काछे हुए। युवती को देखकर अमर चौंक उठा। मुन्नी है। उसने घेरदार लहंगा पहना है, गुलाबी ओढ़नी ओढ़ी है, और पांव में पैजनियां बांध ली हैं। गुलाबी पूंघट में दोनों कपोल फूलों की भांति खिले हुए हैं। दोनों कभी हाथ-में-हाथ मिलाकर, कभी कमर पर हाथ रखकर, कभी कूल्हों को ताल से मटकाकर नाचने में उन्मत्त हो रहे हैं। सभी मुग्ध नेत्रों से इन कलाविदों की कला देख रहे हैं। क्या फुरती है, क्या लचक है। और उनकी एक-एक लचक में, एक-एक गति में कितनी मार्मिकता, कितनी मादकता! दोनों हाथ-में-हाथ मिलाए, थिरकते हुए रंगभूमि के उस सिरे तक चले जाते हैं और क्या मजाल कि एक गति भी बेताल हो।

पयाग ने कहा-देखते हो भैया, भाभी कैसी नाच रही हैं? अपना जोड़ नहीं रखती।

अमर ने विरक्त मन से कहा- हां, देख तो रहा हूं।

"मन हो, तो उठो, मैं उस लौंडे को बुला लूं।"

"नहीं, मुझे नहीं नाचना है।"

मुन्नी नाच रही थी कि अमर उठकर घर चला आया। यह बेशर्मी अब उससे नहीं सही जाती।

एक क्षण के बाद मुन्नी ने आकर कहा--तुम चले क्यों आए, लाला? क्या मेरा नाच अच्छा न लगा?

अमर ने मुंह फेरकर कहा-क्या मैं आदमी नहीं हूं कि अच्छी चीज को बुरा समझे?

मुन्नी और समीप आकर बोली-तो फिर चले क्यों आए?

अमर ने उदासीन भाव से कहा-मुझे एक पंचायत में जाना है। लोग बैठे मेरी राह दे रहे होंगे। तुमने क्यों नाचना बंद कर दिया?

मुन्नी ने भोलेपन से कहा-तुम चले आए, तो नाचकर क्या करती?

अमर ने उसकी आंखों में आंखें डालकर कहा-सच्चे मन से कह रही हो मुन्नी मुन्नी उमसे आंखें मिलाकर बोली-मैं तो तुमसे कभी झूठ नहीं बोली।

"मेरी एक बात मानो। अब फिर कभी मत नाचना।"

मुन्नी उदास होकर बोली-तो तुम इतनी जरा-सी बात पर रूठ गए? जरा किसी से पूछो, मैं आज कितने दिनों के बाद नाची हूँ। दो साल से मैं नगाड़े के पास नहीं गई। लोग कह-कहकर हार गए। आज तुम्हीं ले गए, और अब उलटे तुम्हीं नाराज होते हो।

मुन्नी घर में चली गई। थोड़ी देर बाद काशी ने आकर कहा- भाभी, तुम यही क्या कर रही हो? वहां सब लोग तुम्हें बुला रहे हैं।

मुन्नों में सिरदर्द का बहाना किया।

काशी आकर अपर से बोला--तुम क्यों चले आए, भैया? क्या गंदारों का नाच-गाना अच्छा न लगा।

अमर ने कहा-नहीं जी, यह बात नहीं। एक पंचायत में जाना है देर हो रही है।

काशी बोला-भाभी नहीं जा रही है। इसका नाच देखने के बाद अब दूसरों का रंग नही