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360:प्रेमचंद रचनावली-5
 

में आया, हरिद्वार जाकर देखूं, मेरी चीजें कहां गईं। तीन महीने से ज्यादा हो गए थे। मिलने की आशा तो न थी; पर इसी बहाने स्वामी का कुछ पता लगाना चाहती थी। विचार था एक चिट्ठी लिखकर छोड़ दें। उस धर्मशाला के सामने पहुंची, तो देखा, बहुत से आदमी द्वार पर जमा हैं। मैं भी चली गई। एक आदमी की लाश थी। लोग कह रहे थे, वही पागल है, वही जो अपनी बीबी को खोजता फिरता था। मैं पहचाने गई। वह मेरे स्वामी थे। यह सब बातें मुहल्ले वालों से मालूम हुई। छाती पीटकर रह गई। जिस सर्वनाश से डरती थी, वह हो ही गया। जानती कि यह होने वाला है, तो पति के साथ ही न चली जाती। ईश्वर ने मुझे दोहरी सजा दी, लेकिन आदमी बड़ा बेहया है। अब मरते भी न बना। किसके लिए मरती? खाती-पीती भी हूँ, हंसती-बोलती भी हूं, जैसे कुछ हुआ ही नहीं। बस, यही मेरी राम—कहानी है।