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कर्मभूमि: 365
 

नहीं आता, छोकरी में क्या देखकर भैया रीझ पड़े।

अपना घर दिखाकर पठानिन तो पड़ोस के घर में चली गई, दोनों युवतियों ने सकीना के द्वार की कुंडी खटखटाई। सकीना ने उठकर द्वार खोल दिया। दोनों को देखकर वह घबरा-सी गई। जैसे कहीं भागना चाहती है। कहां बैठाए, क्या सत्कार करें।

सुखदा ने कहा—तुम परेशान न हो बहन, हम इस खाट पर बैठ जाते हैं। तुम तो जैसे घुलती जाती हो। एक बेवफा मरद के चकमें में पड़कर क्या जान दे दोगी?

सकीना का पीला चेहरा शर्म से लाल हो गया। उसे ऐसा जान पड़ी कि सुखदा मुझसे जवाब तलब कर रहीं है—तुमने मेरा बना-बनाया घर क्यों उजाड़ दिया? इसका सकीना के पास कोई जवाब न था। वह कांड कुछ इस आकस्मिक रूप से हुआ कि वह स्वयं कुछ न समझ सकी। पहले बादल का एक टुकड़ा आकाश के एक कोने में दिखाई दिया। देखते-देखते सारा आकाश मेघाच्छन्न हो गया और ऐसे जोर की आंधी चली कि वह खुद उसमें उड़ गई। वह क्या बताए कैसे क्या हुआ? बादल के उस टुकड़े को देखकर कौन कह सकता था, आंधी आ रही हैं?

उसने सिर झुकाकर कहा—औरत की जिंदगी और है ही किसलिए बहनजी। वह अपने दिल से लाचार है, जिसमें वफा की उम्मीद करती है, वही दगा करता है। उसका क्या अख्तियार? तीन भेद'फाओं से मुहब्बत न हो, तो मुहब्बत में मजा ही क्या रहे? शिकवा शिकायत, रोना-धोना, बंताबी और बेकरारी यही तो मुहब्बत के मजे हैं, फिर मैं तो वफा को उम्मीद भी नहीं करती थी। मैं उस वक्त भी इतना जानती थी कि यह आंधी दो-चार घड़ी की मेहमान है, लेकिन तस्कीन के लिए तो इतना ही काफी था कि जिस आदमी की में दिल में सबसे ज्यादा इज्जत करने लगी थी, उसने मुझे इस लायक तो समझा। मैं इस कागज की नाव पर बैठकर भी सागर को पार कर देंगी।

सुखदा ने देखा, इस युवती का हृदय कितना निष्कपट हैं। कुछ निराश होकर बोली—यहो तो मरद के हथकड़े हैं। पहले तो देवता बन जाएंगे, जैसे सारी शरफत इन्हीं पर खतम हैं, फिर तोतों की तरह आंखें फेर लेंगे।

सकीना ने ढिठाई के साथ कहा—बहन, बनने से कोई देवता नहीं हो जाता। आपकी उम्र चाहे साल-दो साल मुझसे ज्यादा हो, लेकिन मैं इस मुआमले में आपसे ज्यादा तजुर्बा रखती हूं। यह घमंड से नहीं कहती, शर्म से कहती हूँ। खुदा न करे, गरीब की लड़की हसीन हो। गरीबी में हुस्न बला है। वहां बड़ों का तो कहना ही क्यों, छोटों की रसाई भी आसानी से हो जाती है। अम्मां बड़ी पारसा हैं, मुझे देवी समझती होंगी, किसी जवान को दरवाजे पर खड़ा नहीं होने देतीं, लेकिन इस वक्त बात की पड़ी है, तो कहना पड़ता है कि मुझे मरदों को देखने और परखने के काफी मौके मिले हैं। सभी ने मुझे दिल-बहलाव की चीज समझा, और मेरी गरीबी से अपना मतलब निकालना चाहा। अगर किसी ने मुझे इज्जत की निगाह से देखा, तो वह बाबूजी थे। मैं खुदा को गवाह करके कहती हूं कि उन्होंने मुझे एक बार भी ऐसी निगाहों से नहीं देखी और न एक कलाम भी ऐसा मुंह से निकाला, जिससे छिछोरेपन की बू आई हो। उन्होंने मुझे निकाह की दावत दी। मैंने मंजूर कर लिया। जब तक वह खुद उस दावत को रद्द न कर दें, मैं उसकी पाबंद हूं, चाहे मुझे उम्र भर यों ही क्यों न रहना पड़े।