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376:प्रेमचंद रचनावली-5
 

सुखदा ने निश्चल भाव से कहा―जहा इतने आदमी मर गए वहां मेरे जाने से कोई हानि न होगी। भाइयो, बहनो भागो मत! तुम्हारे प्राणों का बलिदान पाकर ही ठाकुरजी तुमसे प्रसन्न होंगे।

कायरता की भाँँति वीरता भी संक्रमिक होती है। एक क्षण में उड़ते हुए पत्तों की तरह भागने वाले आदमियों को एक दोवार-सी खड़ी हो गई। अब डंडे पड़ें, या गोलियों की वर्षा हो, उन्हें भय नहीं।

बंदूकों से धांय! धांय! की आवाजें निकलीं। एक गोली सुखदा के कानों के पास से सन से निकल गई। तीन-चार आदमी गिर पड़े! पर दीवार ज्यों-की-त्यों अचल खड़ी थी।

फिर बंदूकें छूटीं। चार-पांच आदमी फिर गिरे, लेकिन दीवार न हिली। सुखदा उसे थामे हुए थी। एक ज्योति सारे घर को प्रकाश से भर देती है। बलवान् हुये उसे दीपक की भाँति समूह में साहस भर देता है।

भीषण दृश्य था। लोग अपने प्यारों को आंखों के सामने तड़पते देखते थे; पर किसी की आंखों में आंसू की बूंद न थी। उनमें इतना साहस कहां से आ गया था? फौजें क्या हमेशा मैदान में डटी ही रहती हैं? वही सेना जो एक दिन प्राणों की बाजी खेलती है, दूसरे दिन बंदूक की पहली आवाज पर मैदान से भाग खड़ी होती है; पर यह किराए के सिपाहियों का हाल है, जिनमें सत्य और न्याय का बल नहीं होता। जो केवल पेट के लिए या लूट के लिए लड़ते हैं। इस समूह में सत्य और धर्म का बल आ गया था। हरेक स्त्री और पुरुष, चाहे वह कितना मूर्ख क्यों न हो, समझने लगा था कि हम अपने धर्म और हक के लिए लड़ रहे हैं, और धर्म के लिए प्राप देना अछुत-नीति में भी उतनी ही गौरव की बात हैं जितनी द्विज नीति में।

मगर यह क्या? पुलिस के जवान क्यों संगीनें उतार रहे हैं? बंदूकें क्यों कधों पर रख लीं? अरे! सब-के-सब तो पीछे की तरफ घूम गए। उनकी चार-चार की कतारें बन रही हैं। मार्च का हुक्म मिलता है। सब-के-सब मंदिर की तरफ लौटे जा रहे हैं। एक कांस्टेबल भी नहीं रहा। केवल लाला समरकान्त पुलिस सुपरिंटेंडेंट से कुछ बातें कर रहे हैं, और जन-समुह उसी भाँति सुखदा के पीछे निश्चल खड़ा है। एक क्षण में सुपरिंटेंडेंट भी चला जाता है। फिर लाला समरकान्त सुखदा के समीप आकर ऊँँचे स्वर में बोलते हैं―

मंदिर खुल गया है। जिसका जी चाहे दर्शन करने जा सकता है। किसी के लिए रोकटोक नहीं है।

जन-समूह में हलचल पड़ जाती है। लोग उन्मत्त हो-होकर सुखदा के पैरों पर गिरते हैं, और तब मंदिर की तरफ दौड़ते हैं।

मगर दस मिनट के बाद ही समूह उसी स्थान पर लौट आता है, और लोग अपने प्यारो की लाशों से गले मिलकर रोने लगते हैं। सेवाश्रम के छात्र डोलियां ले-लेकर आ जाते हैं, और आहतों को उठा ले जाते हैं। वीरगति पाने वालों के क्रिया-कर्म का आयोजन होने लगता है। बजाजों की दुकानों से कपड़े के थान आ जाते हैं, कहीं से बांस, कहीं से रस्सियां, कहीं से घी, कहीं से लकड़ी। विजेताओं ने धर्म ही पर विजय नहीं पाई है, हृदयों पर भी विजय पाई है। सारा नगर उनका सम्मान करने के लिए उतावला हो उठा है।

संध्या समय इन धर्म-विजेताओं की अर्थियाँँ निकलीं। शहर फट पड़ा। जनाजे पहले