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कर्मभूमि: 387
 

अच्छा है कि जब पर बसर हो। गवर्नमेंट तो कोई जरूरी चीज नहीं। पढ़े-लिखे आदमियों ने गरीबों को दबाए रखने के लिए एक संगठन बना लिया है। उसी का नाम गवर्नमेंट है। गरीब और अमीर का फर्क मिटा दो और गवर्नमेंट का खाता हो जाता है।

"आप तो खयाली बातें कर रहे है। गवर्नमेंट की जरूरत उस वक्त न रहेगी, जब दुनिया में फरिश्ते बाद होंगे।"

"आइडियल (आदर्श) को हमेशा सामने रखने की जरूरत है।"

"लेकिन तालीम का सीग्गी विभाग तो जन्न करने का सगा नहीं हैं। फिर जब आप अपनी आमदनी का बड़ा हिस्सा सेवाश्रम में खर्च करते हैं, तो कोई वजह नहीं कि आप मुलाजिमत छोड़कर संन्यासी बन जायं।"

यह दलील डॉक्टर के मन में बैठ गई। उन्हें अपने मन को समझाने का एक साधन मिल गया। बेशक शिक्षा विभाग का शासन से संबंध नहीं। गवर्नमेंट जितनी ही अच्छी होगी, उसका शिक्षाकार्य और भी विस्तृत होगा। तब इस सेवा श्रम की भी क्या जरूरत होगी? संगठित रूप से संवा धर्म का पालन करते हुए, शिक्षा का प्रचार करना दिप दशा में भी आपत्ति की बात नहीं हो सकती। महीनों से जो प्रश्न डॉक्टर साहब को बेचैन कर रहा था, आज हल हो गया।

सलीम को बिदा करके वह लाला समरकान्न के घर चले। ममरकान्त को अमर को पत्र दिखाकर मुर्खरू बनना चाहते थे। जो समस्या अभी वह हल कर चुके थे, उसके विषय में फिर कुछ संदेह उत्पन्न हो रहे थे। उन सदेहों को शांत करना भी आवश्यक था। समरकान्त तो कुछ खुलकर उनसे न मिले। सुखदी ने उनको खबर पाते ही बुला लिया। रेणुका बाई भी आई हुई थी।

शान्तिकुमार ने जाते-ही-जाते अमरकान्न का पत्र निकालकर सुखदा के सामने रख दिया और बोले- सलीम ने चार दिनों से अपनी जेब में डाल रखा था और मैं घबरा रहा था कि बात क्या है?

सुखदा ने पत्र को उड़ती हुई आंखों में देखकर कहा–तो मैं इसे न कर क्या करू? शान्तिकुमार ने विस्मित होकर कहा--जरा एक बार इसे पढ़ तो जाइए। इससे आपके मन की बहुत-सी शंकाए मिट जाएगी।

सुखदा ने रूखेपन के साथ जवाब दिया-मेरे मन में किसी की तरफ से कोई शंका नहीं हैं। इस पत्र में भी जो कुछ लिखा होगा, वह मैं जानती हूँ। मेरी खूब तारीफें की गई होंगी। मुझे तारीफ की जरूरत नहीं है जैसे किसी को क्रोध आ जाता है, उसी तरह मुझे वह आवेश आ गया। यह भी क्रोध के सिवा और कुछ न था। क्रोध की कोई तारीफ नहीं करता।

"यह अपने कैसे समझ लिया कि इसमें आपकी तारीफ की है?"

" हो सकता है, खेद भी प्रकट किया हो ।"

“तो फिर आप और चाहती क्या हैं?"

"अगर आप इतनी भी नहीं समझ सकते, तो मेरा कहना व्यर्थ है।"

रेणुका बाई अब तक चुप बैठी थी। सुखदा को संकोच देखकर बोलीं-जब वह अब तक घर लौटकर नहीं आए, तो कैसे मालूम हो कि उनके मन के भाव बदल गए हैं। अगर सुखदा