पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४०५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
कर्मभूमि:405
 

तुम्हें मेरी कसम, एक शब्द भी झूठ न केहना।"

नैना माथा सिकोड़कर बोली-भाभी, तुम मुझे दिक करती हो, लेकर कसम खा दी। जाओ, मैं कुछ नहीं बताती।

"अच्छा, न बताओ भाई, कोई जबरदस्ती हैं ।"

यह कहकर वह उठकर ऊपर चली। नैना ने उसका हाथ पकड़कर कहा--अब भाभी कहां जाती हो, कसम तो रखा चुकीं? बैठकर सुनती जाओ। आज तक मेरी और उनको एक बार भी बोलचाल नहीं हुई।

सुखदा ने चकित होकर कहा-अरे । सच कहो

नैना ने व्यथित हृदय से कहा- हां, बिल्कुल सच है, भी । जिस दिन में गई उस दिन रात को वह गले में हार टान्ने, आंग्यं नशे में लान, उन्मत्त की भांति पहुंचे, जैम कोई प्यदा असामी से महाजन के रुपये वभूल करने जाय। और मग घृघंट हटाते हुए बोले- मैं तुम्हारा घूँघट देखने नहीं आया है, और न मुझे यह ढकोसला पसंद है। आकर इस कुर्सी पर बैठः। में उन दकियानूसी मर्दी में नहीं है, जो ये गुड़िया के खेल खेलते हैं। तुम्हें हंसकर मेरा स्वागत करना चाहिए था और तुम घूघट निकाले बैठी हो, मानो तुम मेरा मुंह नहीं देखना चाहतीं। उनका हाथ पड़ते ही देह में जेम्प मर्प ने काट लिया। में गिर में पत्र नक सिहर उठी। इन्हें मेरी देह को स्पर्श करने का क्या अधिकार है। यह प्रश्न एक ज्वान्ना की प्रति मेरे मन में उठा। भरी आंखों से आंसू गिरने लगे, वह मारे मन के म्यान, जा में कई दिनों में देख रही थी. जेसे उड़ गए। इतने दिनों से जिम देवता को उगमका का रही थी, क्या उसका यही रूप था । इसमें न देवत्व था, न मनु'यत्व था। केचन मदांता थी, अधिकार का गर्व था और हृदयहीन निर्लज्जता थी। में श्रद्धा के थान में अपनी आत्मा का माग अनुराग, मारा आनंद, माग प्रम स्वामी के चरणों पर समर्पित करने को अँटी हुई धी। उनका यह रूप देखकर, जैसे माल मेर हाथ से छूटकर गिर पड़ा और इमका धूप-दर--नेवेद्य जैसे भूमि पर विख़र गया। मेरी चेतना का एक-एक रोम, जैसे इस अधिकार गर्व में विद्रोह करने लगा। कहाँ था वह आत्म- समर्पण का भाव, जो मेरे अणु-अणु में व्याप्त हो रहा था। मेर जी में आया , मैं भी कह दू कि तुम्हारे साथ मेरे विवाह का यह आशय नहीं है कि में तुम्हारी लौंडी हूँ। तुम मेरे स्वामी हो, तो मैं भी तुम्हारी स्वामिनी है। प्रेम के शासन के सिवा में कोई दूसरा शासन स्वीकार नहीं कर सकती और न चाहती है कि तुम स्वीकार करो, लेकिन जी ऐसा जल रहा था कि मैं इतना निरस्कार भी न कर सकी। तुरंत वही से उठकर बरामदे में आ खड़ी हुई। वह कुछ देर कमरे में मेरी प्रतीक्षा करते रहे, फिर झन्नाकर उठे और मेरा हाथ पकड़कर कमरे में ले जाना चाहा। मेन झटके से अपना हाथ छुड़ा लिया और कठोर स्वर में बोली -मैं यह अपमान नहीं सह सकती।

आप बोले-उम्मोह इस रूप पर इतना अभिमान।

मेरी देह में आग लग गई। कोई जवाब न दिया। ऐसे आदमी से बोलना भी मुझे अपमानजनक मालूम हुआ। मैंने अंदर आकर किवाड़ बंद कर लिए. और उस दिन से फिर न बोली। मैं तो ईश्वर से यही मनाती हैं कि वह अपना विवाह कर लें और मुझे छोड़ दें। जो स्त्री में केवल रूप देखना चाहता है, जो केवल हाव भाव और दिखावे का गुलाम है, जिसके