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436:प्रेमचंद रचनावली-5
 

“मैं तो श्रीमान् महन्तजी से कुछ अर्ज करने आया था।”

“अर्जी लिखकर लाओ।”

“मैं तो महन्तजी से मिलना चाहता हूं।”

“नजराना लाए हो?”

“मैं गरीब आदमी हूं, नजराना कहां से लाऊ?”

“इसलिए कहता हूं, अर्जी लिखकर लाओ। उस पर विचार होगा। जो कुछ हुक्म होगा, सुना दिया जाएगा।”

“तो कब हुक्म सुनाया जाएगा?”

“जब महन्तजी की इच्छा हो।”

“महन्तजी को कितना नजराना चाहिए?”

“जैसी श्रद्धा हो। कम-से-कम एक अशफ।”

“कोई तारीख बता दीजिए, तो मैं हुक्म सुनने आऊ। यहां रोज कौन दौड़ेगा?”

“तुम दौड़ोगे और कौन दौड़ेगा? तारीख नहीं बताई जा सकती।”


अमर ने बस्ती में जाकर विस्तार के साथ अर्जी लिखी और उसे कारकुन की सेवा में पेश कर दिया। फिर दोनों घर चले गए।

इनके आने की खबर पाते ही गांव के सैकड़ों आदमी जमा हो गए। अमर बड़े संकट में पड़ा। अगर उनसे सारा वृत्तांत कहता है, तो लोग उसी को उल्लू बनाएंगे इसलिए चात बनानी पड़ी—अर्जी पेश कर आया हूं। उस पर विचार हो रहा है।

काशी ने अविश्वास के भाव से कहा-वहां महीनों में विचार होगा, तब तक यहां कारिंदे हमें नोच डालेंगे।

अमर ने खिसियाकर कहा—महीनों में क्यों विचार होगा? दो-चार दिन बहुत हैं।

पयाग बोला—यह सब टालने की बातें हैं। खुशी से कौन अपने रुपये छोड़ सकता है।

अमर रोज सबेरे जाम और घड़ी रात गए लौट आता। पर अर्जी पर विचार न होता था। कारकुन, उनके मुहरों, यहां तक की चपरासियों को मिन्नत-समाजत करता, पर कोई न सुनता था। रात को वह निराश होकर लौटता, तो गांव के लोग यहां उसका परिहास करते।

पयाग कहता—हमने तो सुना था कि रुपये में आठ आने की छूट हो गई।

काशी कहता—तुम झूठे हो। मैंने तो सुना था, महन्तजी ने इस साल पूरी लगान माफ कर दी।

उधर आत्मानन्द हलके में बरबर जनता को भड़का रहे थे। रोज बड़ी-बड़ी किसान—सभाओं की खबरें आती थी। जगह-जगह किसान-सभाएं बन रही थीं। अमर की पाठशाली भी बंद पड़ी थी। उसे फुरसत ही न मिलती थी, पढ़ाता कौन? रात को केवल मुन्नी अपनी कोमल सहानुभूति से उसके आंसू पोंछती थी।

आखिर सातवें दिन उसकी अर्जी पर हुक्म हुआ कि सामने पेश किया जाय। अमर महन्त के सामने लाया गया। दोपहर का समय था। महन्तजी खसखाने में एक तख्त पर मसनद लगाए लेटे हुए थे। चारों तरफ खस की टट्टियां थीं, जिन पर गुलाब का छिड़काव हो रहा था। बिजली के पंखे चल रहे थे। अंदर इस जेठ के महीने में इतनी ठंडक थी कि अमर को सदी लगने लगी।