पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४४६

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446 : प्रेमचंद रचनावली-5 "तो हुजूर को जाना पड़ेगा?" "हां, इसी वक्त ! इस तरह दोस्ती का हक अदा किया जाता है !" “तो उन बाबू साहब को नजरबंद किया जाएगा, हुजूर?" "खुदा जाने क्या किया जाएगा? ड्राइवर से कहो, मोटर लाए। शाम तक लौट आना जरूरी है।" जरा देर में मोटर आ गई। सलीम उसमें आकर बैठा, तो उसकी आंखें सजल थीं।

          सात

आज कई दिन के बाद तीसरे पहर सूर्यदेव ने पृथ्वी की पुकार सुनी और जैसे समाधि से निकलकर उसे आशीर्वाद दे रहे थे। पृथ्वी मानो अंचल फैलाए उनका आशीर्वाद बटोर रही थी। इसी वक्त स्वामी आत्मानन्द और अमरकान्त दोनों दो दिशाओं से मदरसे में आए। अमरकान्त ने माथे से पसीना पोंछते हुए कहा-हम लोगों ने कितनी अच्छा प्रोग्राम बनाया था कि एक साथ लौटे। एक क्षण भी विलंब न हुआ। कुछ खा-पीकर फिर निकलें और आठ बजते-बजते लौट आएं। आत्मानन्द ने भूमि पर लेटकर कहा- भैया, अभी तो मुझसे एक पग न चला जाएगा। हां, प्राण लेना चाहो, तो ले लो। भागते-भागते कचूमर निकल गया। पहले शर्बत बनवाओं, पीकर ठंडे हों, तो आंखें खुलें। "तो फिर आज का काम समाप्त हो चुका?"

"हो या भाड़ में जाय, क्या प्राण दे दें? तुमसे हो सकता है करो, मुझसे तो नहीं हो

सकता।" अमर ने मुस्कराकर कहा-यार ! मुझसे दूने तो हो, फिर भी चें बोल गए। मुझे अपना बल और अपना पाचन दे दो, फिर देखो, मैं क्या करता हूँ? आत्मानन्द ने सोचा था, उनकी पीठ ठोंकी जाएगी, यहां उनके पौरुष पर आक्षेप हुआ। बोले--तुम मरना चाहते हो, मैं जीना चाहता हूं। “जीने का उद्देश्य तो कर्म है।" "हां, मेरे जीवन का उद्देश्य कर्म ही है। तुम्हारे जीवन का उद्देश्य तो अकाल मृत्यु है। " अच्छा शर्बत पिलवाता हूं, उसमें दही भी डलवा दूं?" "हां, दही की मात्रा अधिक हो और दो लोटे से कम न हो। इसके दो घंटे बाद भोजन चाहिए।"

"मार डाला ! तब तक तो दिन ही गायब हो जाएगा।"

अमर ने मुन्नी को बुलाकर शर्बत बनाने को कहा और स्वामीजी के बराबर ही जमीन पर लेटकर पूछा-इलाके की क्या हालत है? "मुझे तो भय हो रहा है, कि लोग धोखा देंगे। बेदखली शुरू हुई, तो बहुतों के आसन डोल जाएंगे !" "तुम तो दार्शनिक न थे, यह घी पत्ते पर या पत्ता घी पर की शंका कहां से लाए?"