पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४९

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गबन : 49
 


गंगू ने निष्कपट भाव से कहा-बाबू साहब, रुपये का तो जिक्र ही न कीजिए। कहिए दस हजार का माल साथ भेज दें। दुकान आपकी है, भला कोई बात है? हुक्म हो, तो एक-आध चीज और दिखाऊ? एक शीशफूल अभी बनकर आया है, बस यही मालूम होता है, गुलाब का फूल खिला हुआ है। देखकर जी खुश हो जाएगा। मुनीमजी, जरा वह शीशफूल दिखाना तो। और दाम को भी कुछ ऐसा भारी नहीं, आपको ढाई सौ में दे दूंगी।

रमा ने मुस्कराकर कहा-महाराज, बहुत बातें बनाकर कहीं उल्टे छुरे से न मूंड़ लेना,गहनों के मामले में बिल्कुल अनाड़ी हूं।

गंगू–ऐसा न हो बाबूजी, आप चीज ले जाइए, बाजार में दिखा लीजिए, अगर कोई ढाई सौ से कौड़ी कम में दे दे, तो मैं मुफ्त दे दूंगा।

शीशफूल आया, सचमुच गुलाब का फूल था, जिस पर हीरे की कलियां ओस की बूंदों के समान चमक रही थीं। रमा की टकटकी बंध गई, मानो कोई अलौकिक वस्तु सामने आ गई हो।

गंगू-बाबूजी, ढाई सौ रुपये तो कारीगर की सफाई के इनाम हैं। यह एक चीज है।

रमानाथ–हां, है तो सुंदर, मगर भाई ऐसा न हो, कि कल ही से दाम का तकाजा करने लगो। मैं खुद ही जहां तक हो सकेगा, जल्दी दे दंगा।

गंगू ने दोनों चीजें दो सुंदर मखमली केसों में रखकर रमा को दे दीं। फिर मुनीमजी से नाम टंकवाया और पान खिलाकर विदा किया।

रमा के मनोल्लास की इस समय मीमा न थी, किंतु यह विशुद्ध उल्लास न था, इसमें एक शंका का भी समावेश था। यह उस बालक का आनंद न था जिसने माता से पैसे मांगकर मिठाई ली हो, बल्कि उस बालक का जिसने पैसे चुराकर ली हो, उसे मिठाइयां मीठी तो लगती हैं, पर दिल कांपता रहता है कि कहीं घर चलने पर मार न पड़ने लगे। साढे छ: सौ रुपये चुका देने की तो उसे विशेष चिंता न थी, घात लग जाय तो वह छ: महीने में चुका देगा। भय यही था कि बाबूजी सुनेंगे तो जरूर नाराज होगे, लेकिन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता था, जालपा को इन आभूषणों से सुशोभित देखने की उत्कंठा इसे शंका पर विजय पाती थी। घर पहुंचने की जल्दी में उसने सड़क छोड़ दी, और एक गली में घुस गया। सघन अंधेरी को हुआ था। बादल तो उसी वक्त छाए हुए थे, जब वह घर से चला था। गली में घुसा ही था, कि पानी की बूंद सिर पर छर्रें की तरह पड़ी। जब तक छतरी खोले, वह लथपथ हो चुकी थी। उसे शंका हुई, इस अंधकार में कोई कर दोनों चीजें छीन न ले, पानी की झरझर में कोई आवाज भी न सुनें।

अंधेरी गलियों में खून तक हो जाते हैं। पछताने लगा, नाहक इधर से आया। दो-चार मिनट देर ही में पहुंचता, तो ऐसी कौन-सी आफत आ जाती। असामयिक वृष्टि ने उसकी आनंद- कल्पनाओं में बाधा डाल दी। किसी तरह गली का अंत हुआ और सड़क मिली। लालटेनें दिखाई दीं। प्रकाश कितनी विश्वास उत्पन्न करने वाली शक्ति है, आज इसका उसे यथार्थ अनुभव हुआ।

वह घर पहुंचा तो दयानाथ बैठे हुक्का पी रहे थे। वह उस कमरे में न गया! उनकी आंख बचाकर अंदर जाना चाहता था कि उन्होंने टोका-इस वक्त कहां गए थे?

रमा ने उन्हें कुछ जवाब न दिया। कहीं वह अखबार सुनाने लगे, तो घंटों की खबर लेंगे। सीधा अंदर जा पहुंचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरंत उसके हाथ से