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504 : प्रेमचंद रचनावली-5
 

काशी ही चलने का विचार है न? अमर ने कहा-मुझे तो अभी हरिद्वार जाना है। सुखदा बोली-तो सब वहीं चलेंगे। अमरकान्त ने कुछ हताश होकर कही-अच्छी बात है। तो जरा मैं बाजार से सलोनी के लिए साड़ियां लेता आऊ? सुखदा ने मुस्करकिर कहा--सलोनी के लिए ही क्यों? मुन्नी भी तो है। मुन्नी इधर ही आ रही थी। अपना नाम सुनकर जिज्ञासा- भाव से बोली-क्या मुझे कुछ कहती हो बहूजी? सुखदा ने उसकी गरदन में हाथ डालकर कहा-मैं कह रही थी कि अब मुन्नीदेवी भी हमारे साथ काशी रहेंगी ।। मुन्नी ने चौंककर कहा-तो क्या तुम लोग काशी जा रहे हो? सुखदा हंसी-और तुमने क्या समझा था? मैं तो अपने गांव जाऊंगी।" "हमारे साथ न रहोगी? ** तो क्या लाला भी काशीं जा रहे हैं। और क्या? तुम्हारी क्या इच्छा है? मुन्नी का मुंह लटक गया। "कुछ नहीं, यों हीं पूछती थी।" अमर ने उसे आश्वासन दिया—नहीं मुन्नी, यह तुम्हें चिढ़ा रही हैं। हम सव हरिद्वार चल रहे हैं। मुन्नी खिल उठी। "तब तो बड़ा आनंद आएगा। सलोनी काकी मूसलों ढोल बजाएगी। अमर ने पूछा--अच्छा, तुम इस फैसले का मतलब समझ गई? "समझी क्यों नहीं? पांच आदमियों की कमेटी बनेगी। वह जो कुछ करेगी उसे सरकार मान लेगी। तुम और सलीम दोनों कमेटी में रहोगे। इससे अच्छा और क्या होगा? बाकी तीन आदमियों को भी हमीं चुनेंगे। "तब तो और भी अच्छा हुआ।' गवर्नर साहब की सज्जनता और सहृदयता है।" तो लोग उन्हें व्यर्थ बदनाम कर रहे थे? 'बिल्कुल व्यर्थ। "इतने दिनों के बाद हम फिर अपने गांव में पहुंचेंगे। और लोग भी छूट आए होंगे? आशा है। जो न आए होंगे, उनके लिए लिखा-पढी करेंगे। "अच्छा, उन तीन आदमियों में कौन-कौन रहेग? 'और कोई रहे या न रहे, तुम अवश्य रहोगी।" 'देखती हो बहूजी, यह मुझे इसी तरह छेड़ा करते हैं। यह कहते-कहते उसने मुंह फेर लिया। आंखों में आंसू भर आए थे।