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90 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


रतन-मेरे पास इस वक्त छ: सौ रुपये हैं, आप हार दे जाइए; बाकी के रुपये काशी से लौटकर ले जाइएगा।

जौहरी–रुपये का तो कोई हर्ज न था, महीने-दो महीने में ले लेता; लेकिन हम परदेशी लोगों का क्या ठिकाना, आज यहां हैं, कल वहां हैं, कौन जाने यहां फिर कब आना हो ! आप इस वक्त एक हजार दे दें, दो सौ फिर दे दीजिएगा।

रमानाथ-तो सौदा न होगा।

जौहरी–इसका अख्तियार आपको है; मगर इतना कहे देता हूं कि ऐसा माल फिर न पाइएगा।

रमानाथ–रुपये होंगे तो माल बहुत मिल जायेगा।

जौहरी-कभी-कभी दाम रहने पर भी अच्छा माल नहीं मिलता।

यह कहकर जौहरी ने फिर होर को केस में रक्खा और इस तरह संदूक समेटने लगा, मानो वह एक क्षण भी न रुकेगा।

रतन का रोया-रोयां कान बना हुआ था, मानो कोई कैदी अपनी किस्मत का फैसला सुनने को खड़ा हो। उसके हृदय की सारी ममता, ममता का सारा अनुराग, अनुराग की सारी अधीरता, उत्कंठा और चेष्य उसी हार पर केंद्रित हो रही थी, मानो उसके प्राण उसी हार के दानों में जा छिपे थे, मानो उसके जन्म-जन्मांतरों की संचित अभिलाषा उसी हार पर मंडरा रही थी। जौहरी को संदूक बंद करते देखकर वह जलविहीन मछली की भांति तड़पने लगी। कभी वह संदूक खोलती, कभी वह दराज खोलती; पर रुपये कहीं न मिले।

सहसा मोटर की आवाज सुनकर रतन ने फाटक की ओर देखा। वकील साहब चले आ रहे थे। वकील साहब ने मोटर बरामदे के सामने रोक दी और चबूतरे की तरफ चले। रतन ने चबूतरे के नीचे उतरकर कहा-आप तो नौ बजे आने को कह गए थे?

वकील-वहां कोरम ही पूरा न हुआ, बैठकर क्या करता 'कोई दिल से तो काम करना नहीं चाहता, सब मुफ्त में नाम कमाना चाहते हैं। यह क्या कोई जौहरी है?

जौहरी ने उठकर सलाम किया।

वकील साहब रतन से बोले-क्यों, तुमने कोई चीज पसंद की?

रतन–हां, एक हार पसंद किया है, बारह सौ रुपये मांगते हैं।

वकील-बस। और कोई चीज पसंद करो। तुम्हारे पास सिर की कोई अच्छी चीज नहीं।

रतन इस वक्त मैं यही एक हार लूंगी। आजकल सिर की चीजें कौन पहनता है।

वकील-लेकर रख लो, पास रहेगी तो कभी पहन भी लोगी। नहीं तो कभी दूसरों को पहने देख लिया, तो कहोगी, मेरे पास होता, तो मैं भी पहनती।

वकील साहब को रतन से पति का-सा प्रेम नहीं, पिता का-सा सेह था। जैसे कोई स्नेही पिता मेले में लड़कों से पूछ-पूछकर खिलौने लेता है, वह भी रतन से पूछ-पूछकर खिलौने लेते थे। उसके कहने पर की देर थी। उनके पास उसे प्रसन्न करने के लिए धन के सिवा और चीज ही क्या थी। उन्हें अपने जीवन में एक आधार की जरूरत थी-संदेह आधार की, जिसके सहारे वह इस जीर्ण दशा में भी जीवन-संग्राम में खड़े रह सकें, जैसे किसी उपासक को प्रतिमा की जरूरत होती है। बिना प्रतिमा के वह किस पर फूल चढाए, किसे गंगा-जल से