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92 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


सकता है। उसे अपना परदा खोलना पड़ेगा। इसके सिवा और कोई उपाय नहीं है।

मन में यह निश्चय करके रमा घर की ओर चला, पर उसकी चाल में वह तेजी न थी जो मानसिक स्फूर्ति का लक्षण है। लेकिन घर पहुंचकर उसने सोचा–जब यही करना है, तो जल्दी क्या है, जब चाहूं मांग लूंगा। कुछ देर गप-शप करता रहा, फिर खाना खाकर लेटा। सहसा उसके जी में आया, क्यों न चुपके से कोई चीज उठा ले जाऊं? कुल-मर्यादा की रक्षा करने के लिए एक बार उसने ऐसा ही किया था। उसी उपाय से क्या वह प्राणों की रक्षा नहीं कर सकता? अपनी जबान से तो शायद वह कभी अपनी विपत्ति का हाल न कह सकेगा। इसी प्रकार आगा-पीछा में पड़े हुए सबेरा हो जायेगा। और तब उसे कुछ कहने का अवसर ही न मिलेगा।

मगर उसे फिर शंका हुई, कहीं जालपा की आंख खुल जाय? फिर तो उसके लिए त्रिवेणी के सिवा और स्थान ही न रह जायगा। जो कुछ भी हो एक बार तो यह उद्योग करना ही पड़ेगा। उसने धीरे से जालपा का हाथ अपनी छाती पर से हटाया, और नीचे खड़ा हो गया। उसे ऐसा ख्याल हुआ कि जालपा हाथ हटाते ही चौंकी और फिर मालूम हुआ कि यह भ्रम-मात्र था। उसे अब जालपा के सलूके की जेब से चाभिर्यों का गुच्छा निकालना था। देर करने का अवसर न था। नींद में भी निम्नचेतना अपना काम करती रहती है। बालक कितना ही गाफिल सोया हो, माता के चारपाई से उठते ही जाग पड़ता है, लेकिन जब चाभी निकालने के लिए झुका, तो उसे जान पड़ा जालपा मुस्करा रही है। उसने झट हाथ खींच लिया और लैंप के क्षीण प्रकाश में जालपा के मुख की ओर देखा, जो कोई सुखद स्वप्न देख रही थी। उसकी स्वप्न-सुख विलसित छवि देखकर उसका मन कातर हो उठा। हा|इस सरला के साथ मैं ऐसा विश्वासघात करूं? जिसके लिए मैं अपने प्रार्थों को भेंट कर सकता हूं, उसी के साथ यह कपट? जालपा का निष्कपट स्नेह-पूर्ण हृदय मानो उसके मुखमंडल पर अंकित हो रहा था। आह । जिस समय इसे ज्ञात होगा इसके गहने फिर चोरी हो गए, इसकी क्या दशा होगी? पछाड़ खायगी, सिर के बाल नोचेगी। वह किन आंखों से उसका यह क्लेश देखेगा? उसने सोचा-मैंने इसे आराम ही कौन सा पहुंचाया है। किसी दूसरे से विवाह होता, तो अब तक वह रत्नों से लद जाती। दुर्भाग्यवश इस घर में आई, जहां कोई सुख नहीं-उल्टे और रोना पड़ा।

रमा फिर चारपाई पर लेट रहा। उसी वक्त जालपा की आंखें खुल गईं। उसके मुख की ओर देखकर बोली-तुम कहां गए थे? मैं अच्छा सपना देख रही थी। बड़ी बाग है, और हम-तुम दोनों उसमें टहल रहे हैं। इतने में तुम न जाने कहां चले जाते हो, एक और साधु आकर मेरे सामने खड़ा हो जाता है। बिल्कुल देवताओं का-सा उसका स्वरूप है। वह मुझसे कहता है-बेटी, मैं तुझे वर देने आया हूं। मांग, क्या मांगती है। मैं तुम्हें इधर-उधर खोज रही हूं कि तुमसे पूछे क्या मांगू। और तुम कहीं दिखाई नहीं देते। मैं सारा बाग छान आई। पेड़ों पर झांककर देखा, तुम न जाने कहां चले गए हो। बस इतने में नींद खुल गई, वरदान न माँगने पाई।

रमा ने मुस्कराते हुए कहा-क्या वरदान मांगती?

‘मांगती जो जी में आता, तुम्हें क्या बता दूं?'

'नहीं, बताओ, शायद तुम बहुत-सा धन मांगता'।

'धन को तुम बहुत बड़ी चीज समझते होगे? मैं तो कुछ नहीं समझती।'

'हां, मैं तो समझता हैं। निर्धन रहकर जीना मरने से भी बदतर है। मैं अगर किसी देवता