पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
चौबीसवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि जब श्रीकृष्ण जमुना के पास पहुँच रूख तले लाठी टेक खड़े हुए, तब सब बाल बाल औ सखाओं ने आय कर जोड़ कहा कि महाराज, हमें इस समय बड़ी भूख लगी है, जो कुछ लाये थे सो खाई पर भूख न गई। कृष्ण बोले―देखो वह जो धुआँ दिखाई देता है तहाँ मथुरिये कंस के डर से छिपके यज्ञ करते हैं, उनके पास जा हमारा नाम ले दंडवत कर हाथ बाँध खड़े हो, दूर से भोजन ऐसे दीन हो मांगियो, जैसे भिखारी अधीन हो माँगना है।

यह बात सुन ग्वाल चले चले वहाँ गये जहाँ माथुर बैठे यज्ञ कर रहे थे। जाते ही उन्होने प्रनाम कर निपट आधीनता से कर जोड़ के कहा―महाराज, आपको दंडवत कर हमारे हाथ श्री कृष्णचंदजी ने यह कहला भेजा है कि हमको अति भूख लगी है, कुछ कृपा कर भोजन भेज दीजे। इतनी बात ग्वालो के मुख से सुन मथुरिये क्रोध कर बोले―तुम तो बड़े मूर्ख हो जो हमसे अभी यह बात कहते हो। बिन होम हो चुके किसी को कुछ न देगे। सुनो जब यज्ञ कर लेगे और कुछ बचेगा सो बाँट देगे। फिर ग्वालों ने उनसे गिड़गिड़ा के बहुतेरा कहा कि महाराज, घर आये भूखे को भोजन करवाने से बड़ा पुण्य होता है, पर वे इनके कहने को कुछ ध्यान में न लाये, बरन इनकी ओर से मुँह फेर आपस में कहने लगे।

बड़े मूढ़ पशुपालक नीच। माँगत भात होम के बीच॥