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में गोस्वामी गोपालदासजी की मृत्यु हो जाने और उनके भाई गोस्वामी रामरंग कौशल्यादासजी के बर्दबान चले जाने से इनका चित्त उस स्थान से ऐसा उचाट हुआ कि नवाब के आग्रह करने पर भी उनसे विदा हो ये कलकत्ते चले गए।

नाटौर की प्रसिद्ध रानी भवानी के दत्तक पुत्र महाराज रामकृष्ण से कलकत्ते में इनका परिचय हो गया और यह कुछ दिन उन्हींके आश्रय में वहाँ रहे। जब उनके राज्य का नए रूप से प्रबंध हो गया और उन्हें उनका राज्य भी मिल गया, तब यह भी उनके साथ नादौर गए। कई वर्ष के अनंतर जब उनके राज्य में उपद्रव मचा और वह कैद किए जाकर मुर्शिदबाद लाए गए, तब यह भी उनसे विदा होकर सं॰१८५३ वि॰ में कलकत्ते लौट आए जहाँ कुछ दिन तक चितपुर रोड पर रहे। यहाँ के कुछ बाबू लोगों ने प्रकट मैं तो इनका बहुत कुछ आदर सत्कार किया, पर कुछ सहायता न की, क्योंकि वे लिखते हैं कि "उन्ही के थोथे शिष्टाचार में जो कुछ वहाँ से लाया था सो बैठकर खाया।" जब कई वर्ष इन्हें जिविका का कष्ट बना रहा, तब अंत में घबराकर जिविका की खोज में यह जगन्नाथपुरी गए। जब जगदीश का दर्शन करने गए थे, तब स्वरचित निर्वेदाष्टक सुनाकर उनकी स्तुति की थी, जिसका प्रथम दोही यों है―

विश्वभर बनि फिरत हौ, भले बने महराज।
हमरी ओर निहारि कै, लखौ आपुनो काज॥

संयोग से नागपुर के राजा मनियाँ बाबू भी उसी समय जगदीश के दर्शन को आए हुए थे और वे खड़े खड़े इनकी इस दैन्य स्तुति को जिसे यह बड़ी दीनता के साथ पढ़ रहे थे, सुनते