रहे । इससे उन्हें इनपर बड़ी दया आई और उन्होने इनसे परिचय करके अपने साथ मागपुर लिया जाने के लिये बहुत आग्रह दिखलाया । इनका विचार भी वहाँ जाने का पक्का हो गया था। पर अभी तक इनके अदृष्ट ने इनका साथ नहीं छोड़ा था जिससे यह उनके साथ नहीं जा सके और कलकत्ते लौट आए। विदा होते समय मनियाँ बाबू ने सौ रुपये भेट देकर इनका सत्कार किया था।
इन्हीं दिनो साहब के पठन पाठन के लिये जब कलकत्ते में एक पाठशाला खुलीं, तब इन्होने गोपीमोहन ठाकुर से जाकर प्रार्थना की। उन्होंने अपने भाई हरिमोहन ठाकुर के साथ इन्हें भेजकर पादरी बुरन साहब से इनकी भेट करा दी। उन्होने आशा भरोसा तो बहुत दिया, पर एक महीना व्यतीत हो जाने पर भी जब उनका किया कुछ नहीं हुआ, तब दीवान काशीनाथ खत्री के छोटे पुत्र श्यामाचरण के द्वारा डाक्टर रसेल से एक अनुरोध-पन्न पाप्त करके इन्होंने डाक्टर गिलक्राइस्ट से भेद की जो उन दिनों फोर्ट विलियम कॅालेज के प्रिंसिपल थे । इन्हीं गिलक्राइस्ट साहब का, जो उस समय हिंदी और उर्दू भाषाओं को स्वरूप निश्चित कर रहे थे, सत्संग ललूलालजी की विख्याति का मूल कारण हुआ ।
साहब ने इन्हें ब्रज भाषा की किसी कहानी को हिंदी गद्य में लिखने की आज्ञा दी और अर्थ-साहाय्य के साथ साथ इनके पार्थनानुसार दो मुसलमान लेखक को, जिनका नाम मजहरअली खों चिली और काजिम अली जब था, सहायतार्थ नियुक्त कर दिया । तब इन्होने एक वर्ष ( सं० १८५६ वि०) में परिश्रम करके चार पुस्तक का ब्रज भाषा से रेखते की बोली मैं अनुवाद