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कुछ चिन्ता नहीं, अब आप इसे धारन कीजे। यह सुन हरि ने उस संख को अपना आयुध किया। आगे दोनो भाई वहाँ से चले चले यम की पुरी में जा पहुँचे, जिसका नाम है संयमनी, औ धर्मराज जहाँ का राजा है।

इनको देखतेही धर्मराज अपनी गादी से उठ आगे आय अति आवभगति कर ले गया। सिहासन पर बैठाय पाँव धो चरनामृत ले बोला―धन्य यह ठौर, धन्य यह पुरी, जहाँ आकर प्रभु ने दरशन दिया औ अपने भक्तो को कृतारथ किया, अब कुछ आज्ञा कीजे जो सेवक पूरन करैं। प्रभु ने कहा कि हमारे गुरुपुत्र को लादे।

इतना बचन हरि के मुख से निकलतेही धर्मराज उठ जाकर बालक को ले आया, और हाथ जोड़ विनती कर बोला कि कृपानाथ आपकी कृपा से यह बात मैंने पहलेही जानी थी कि आप गुरुसुत के लेने को आवेगे, इसलिये मैने यत्र कर रखा है, इस बालक को आज तक जन्म नही दिया। महाराज, ऐसे कह धर्मराज ने बालक हरि को दिया। प्रभु ने ले लिया औ तुरन्त उसे रथ पर बैठाय वहॉ से चल कितनी एक बेर में जा गुरु के सोहीं खड़ा किया, और दोनो भाइयो ने हाथ जोड़के कहा―गुरुदेव, अब क्या आज्ञा होती है।

इतनी बात सुन औ पुत्र को देख, सांदीपन ऋषि ने अति प्रसन्न हो श्रीकृष्ण बलरामजी को बहुत सी आसीसे देकर कहा―

अब हौ मॉगो कहा मुरारी। दीनौ मोहि पुत्र सुख भारी।।
अति जस तुम सौ सिष्य हमारौ। कुशल क्षेम अब घरहि पधारौ।

जब ऐसे गुरु ने आज्ञा की तब दोनो भाई बिदा हो, दंडवत कर, रथपर बैठ वहॉ से चले चले मथुरापुरी के निकट आए। इनका