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मारे मत छोड़ियो। इतना कह नारद मुनि तो चले गये औ कालयवन अपना दल जोड़ने लगी। इसमें कितने एक दिन बीच उसने तीन कड़ोड़ महा मलेच्छ अति भयावने इकट्ठे किये। ऐसे कि जिनके मोटे भुज, गले, बड़े दाँत, मैले भेस, भूरे केस, नैन लाल घँघची से, तिन्हें साथ ले डंका दे मथुरा पुरी पर चढ़ि आया, औ उसे चारों ओर से घेर लिया। इस काल श्रीकृष्णचंद जी ने उसका व्योहार देख अपने जी में बिचारा कि अब यहाँ रहना भला नहीं क्यौकि आज यह चढ़ आया है, औ कल को जरासंध भी चढ़ आवे तो प्रजा दुख पावेगी। इससे उत्तम यही है कि यहाँ ने रहिए, सब समेत अनत जाय बसिये। महाराज, हरि ने यो बिचार कर बिस्वकर्मा को बुलाय समझाये बुझायके कहा कि तू अभी जाके समुद्र के बीच एक नगर बनाव, ऐसा जिसमें सब यदुबंसी सुख से रहै, पर वे यह भेद न जाने कि ये हमारे घर नही औ पल भर में सबको वहाँ ले पहुँचाव।

इतनी बात के सुनतेही जा बिश्वकर्मा ने समुद्र के बीच सुदरसन के ऊपर, बारह योजन का नगर जैसा श्रीकृष्णजी ने कहा था तैसाही रात भर में बनाय, उसका नाम द्वारका रख, आ, हरि से कहा। फिर, प्रभु ने उसे आज्ञा दी कि इसी समै तू सब यदुबंसियो को वहाँ ऐसे पहुँचाय थे कि कोई यह भेद न जाने जो हम कहाँ आए औ कौन ले आया।

इतना बचन प्रभु के मुख से जो निकला तो रातों रातही देवकी वसुदेव समेत विस्वकर्मा ने सथ यदुबंसियो को ले पहुँचाया, औ श्रीकृष्ण बलराम भी वहाँ पधारे। इस बीच समुद्र की लहर का शब्द सुन सब यदुबंसी चौक पड़े औ अति अचरज कर