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बड़े रावत, सावंत, सूर, वीर, जोधाओं को बुलाय, सब भाँति ऊँच नीच समझाय बुझाय, रुक्मिनीजी की चौकसी को भेज दिया। वे भी आय अपने अपने अस्त्र शस्त्र सँभाले राजकन्या के संग हो लिये। उस बिरियाँ रुक्मिनीजी सब सिंगार किये, सख सहेलियों के झुंड के झुंड लिये, अंतरपट की ओट मे औ काले काले राक्षसो के कोट में जाते, ऐसी सोभायमान लगती थी कि जैसे स्याम घटा के बीच, तारामंडल समेत चंद। निदान कितनी एक बेर में चली चली देवी के मंदिर में पहुँची। वहाँ जाय हाथ पाँव धोय, आचमन कर, शुद्ध होय, राजकन्या ने पहले तो चंदन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य कर, श्रद्धा समेत बेद की विधि से देवी की पूजा की। पीछे ब्राह्मनियों को इच्छा भोजन करवाय, सुथरी तीयले पहराय, रोली को खौड़ का, अक्षत लगाय उन्हे दक्षना दी औ उनसे असीस ली।

आगे देवी की परिक्रमा दे, वह चंदूमुखी, चंपकबरनी, मृगनैनी, पिकबैनी, राजगौनी, सखियों को साथ ले हरि के मिलने की चिंता किये, जो वहाँ से निचित हो चलने को हुई तो श्रीकृष्णचंद भी अकेले रथ पर बैठे वहाँ पहुँचे, जहाँ रुक्मिनी के साथी सब जोधा अस्त्र शस्त्र से जकड़े थे। इतना कह श्रीशुकदेवजी बोले कि

पूजि गौर जबही चली, एक कहति अकुलाय।
सुन सुंदरि आए हरि, देखें ध्वजा फहराय॥

यह बात सखी से सुन औं प्रभु के रथ की बैरख देख, राजकन्या अति आनंद कर फूली अंग न समाती थी औं सखी के हाथ पर हाथ दिये मोहनी रूप किये, हरि के मिलने की आस