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जामवंत सोता था औ उसकी स्त्री अपनी लड़की को खड़ी पालने मे झुलाती थी।

वह प्रभु को देख भय खाय पुकारी औ जामवंत जागा, तो धाय हरि से आय लिपटा औ मल्लयुद्ध करने लगा। जब उसका कोई दाव औ बल हरि पर न चला तब मनही मन विचारकर कहने लगा कि मेरे बल के तो है लक्षमन राम और इस संसार मे ऐसा बली कौन है जो मुझसे करे संग्राम। महाराज, जामवंत मनही मन ज्ञान से यो बिचार प्रभु का ध्यान कर,

ठाढ़ौ उसरि जोरकै हाथ। बोल्यौ दरस देहु रघुनाथ॥
अंतरजामी, मै तुम जाने। लीला देखतही पहिचाने॥
भली करी लीनौ औतार। करिहौ दूर भूमि कौ भार॥
त्रेतायुग ते इहि ठां रह्यौ। नारद भेद तुम्हारी कह्यो॥
मनि के काजे प्रभु इत ऐहैं। तबही तोकौ दरसन देहैं॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि हे राजा, जिस समय जामवंत ने प्रभुको जान यो बखान किया, तिसी काल श्रीमुरारी भक्तहितकारी ने जामवंत की लगन देख मगन हो, राम का भेष कर, धनुष धान धर दरसन दिया। आगे जामवंत ने अष्टांग प्रनाम कर, खड़े हो, हाथ जोड़ अति दीनता से कहा कि हे कृपासिन्थु दीनबन्धु, जो आपकी आज्ञा पाऊँ तो अपना मनोरथ कह सुनाऊँ। प्रभु बोले-अच्छा कह। तब जामवंत ने कहा कि हे पतितपावन दीनानाथ, मेरे चित्त मे यो है कि यह कन्या जामवंती*[१] आप को ब्याह दूँ औ जगत मे जस बड़ाई लूँ। भगवान ने कहा-जो तेरी इच्छा में ऐसे आया तो हमे भी


  1. *(क)में 'जामवती', (ख में 'जाम्बुवती'