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अति बिनती कर सिर नाय हाथ जोड़ सनमुख खड़ा हो बोला-कृपासिंधु, आपका आना इधर कैसे हुआ सो कृपा कर कहिये।

महाराज, बलदेवजीने उसके मन की लगन देख मगन हो अपने जाने का सब भेद कह सुनाया। इनकी बात सुन राजा दुरयोधन बोला कि नाथ, वह मनि कही किसीके पास न रहेगी, कभी न कभी आपसे आप प्रकाश हो रहेगी। यो सुनाय फिर हाथ जोड़ कहने लगा कि दीनदयाल, मेरे बड़े भाग जो आपका दरसन मैने घर बैठे पाया और जन्म जन्म का पाप गँवाया। अब कृपा कर दास के मन की अभिलाषा पूरी कीजे और कुछ दिवस रह सिध्य कर गदा युद्ध सिखाय जग मे जस लीज, महाराज, दुरजोधन से इतनी बात सुन बलरामजी ने उसे सिष्य किया और कुछ दिन वहाँ रह सब गदा युद्ध की विद्या सिखाई पर मनि वहाँ भी सारे नगर मे खोजी औ न पाई। आगे श्रीकृष्णजी के पहुँचने के उपरांत कितने एक दिन पीछे बलरामजी भी द्वारका नगरी में आए, तो कृष्णचंदजी ने सब यादौ साथ ले सत्राजीत को तेल से निकाल अग्नि संस्कार किया औ अपने हाथो दाह किया।

जब श्रीकृष्णजी क्रियाकर्म से निचिन्त हुए तब अक्रूर औ कृतवर्मा कुछ आपस मे सोच बिचारकर, श्रीकृष्ण के पास आय, उन्हे एकांत ले जाय, मनि दिखाय कर बोले कि महाराज, यादव सब बहरमुख भए औ माया में मोह गए। तुम्हारा सुमरन ध्यान छोड़ धनांध हो रहे है, जो ये अब कुछ कष्ट पाये, तो ये प्रभु की सेवा में आवे। इसलिये हम नगर छोड़ मनि ले भागते है, जद हम इनसे आपका भजन सुमरन करावेंगे, तधी द्वारकापुरी में आवेंगे। इतनी बात कह अक्रूर औ कृतवर्मा सब कुटुंब समेत