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सुनाये, तब तो वह निरास हो जाने की आस छोड़, मनि अक्रूरजी के पास रख, रथ पर चढ़, नगर छोड़ भागा और उसके पीछे रथ चढ़ श्रीकृष्ण बलरामजी भी उठ दौड़े चलते चलते इन्होंने उसे सौ योजन पर जाय लिया। इनके रथ की आहट पाय सतधन्वा अति घबराय रथ से उतर मिथिलापुरी में जा बढ़ा।

प्रभु ने उसे देख क्रोध कर सुदरसन चक्र को आज्ञा की-तू अभी सतधन्वा का सिर काट। प्रभु की आज्ञा पाते ही सुदरसन चक्र ने उसका सिर जा काटा। तब श्रीकृष्णचंद ने उसके पास जाय मनि ढूँढ़ी पर न पाई, फिर बलदेव जी से कहा कि भाई, सतधन्वा को मारा औ मनि न पाई। बलरामजी बोले कि भाई वह मनि किसी बड़े पुरुष ने पाई, तिसने लाय नही दिखाई। वह मनि किसी के पास छिपने की नहीं, तुम देखियो, निदान प्रगटेगी कही न कही।

इतनी बात कह बलदेवजी ने श्रीकृष्णचंद से कहा कि भाई, अब तुम तो द्वारकापुरी को सिधारो औ हम मनि के खोजने को जाते हैं, जहाँ पावेगे तहाँ से ले आवेंगे।

इतनी कथा कह श्री शुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, श्रीकृष्णचंद आनंदकंद तो सतधन्वा को मार द्वारकापुरी पधारे श्री बलराम सुखधाम मनि के खोजने को सिधारे। देस देस नगर नगर गाँव गाँव मे ढूँढ़ते ढूँढ़ते बलदेवजी चले चले अजोध्यापुरी में जा पहुँचे। इनके पहुँचने के समाचार पाय अजोध्या का राजा दुरयोधन उठ धाया। आगे बढ़ भेटकर भेट दे प्रभु को बाजे गाजे से पाटंबर के पाँवड़े डालता निज मंदिर मे ले आया। सिंहासन पर बिठाय अनेक प्रकार से पूजा कर भोजन करवाय,