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अर्जुन हड़बड़ाय दौड़कर वहाँ गया जहाँ वह महा सुंदरी नदी के तीर तीर बिहरती थी, और पूछने लगा कि कह सुंदरी, तू कौन है औ कहाँ से आई है और किस लिये यहाँ अकेली फिरती है? यह भेद अपना सब सुझे समझायकर कह। इतनी बात के सुनते ही

सुंदरि कथा कहै आपनी। हौ कन्या हौ सूरजतनी॥
कालिंदी है मेरो नाम। पिता दियो जल मे विश्राम॥
रचे नदी में मंदिर आय। मोसो पिता को समुझाय॥
कीजो सुता नदी ढिग फेरो। आय मिलगौ ह्याँ वर तेरो॥
यदुकुल माहि कृष्ण औतरे। तो काजे इहि ठाँ अनुसरे॥
आदिपुरुष अविनासी हरी। ता काजै तू है अवतरी॥
ऐसे जबहि तात रवि कह्यौ। तबते मै हरिपद को चह्यौ॥

महाराज, इतनी बात के सुनतेही अर्जुन अति प्रसन्न हो बोले कि हे सुंदरी, जिनके कारन तू यहाँ फिरती है, वेई प्रभु अविनासी द्वारकावासी श्रीकृष्णचंद आनंदकंद आय पहुँचे। महाराज ज्यो अर्जुन के मुंह से इतनी बात निकली, त्यो भक्तहितकारी श्रीबिहारी भी रथ बढ़ाय वहाँ जा पहुँचे। प्रभु को देखतेही अर्जुन ने जब विसका सब भेद कह सुनाया, तब श्रीकृष्णचंदजी ने हँसकर झट उसे रथ पर चढ़ाय नगर की बाट ली। जितने में श्रीकृष्णचंद वन से नगर मे आवे, तितने में विश्वकर्मा ने एक मंदिर अति सुंदर सबसे निराला, प्रभु की इच्छा देख बना रखा। हरि ने आतेही कालिदी को वहाँ उतारा औ आप भी रहने लगे।

आगे कितने एक दिन पीछे एक समै श्रीकृष्णचंद औ अर्जुन रात्रि की बिरियाँ किसी स्थान पर बैठे थे कि अग्नि ने आय, हाथ जोड़, सिर नाय हरि से कहा-महाराज, मै बहुत दिन की भूखी