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लगी। पहले तो उसने तीन लोक चौदह भुवन, सात द्वीप, नौखंड पृथ्वी, आकाश, सातो समुद्र, आठो लोक बैकुण्ठ सहित लिख दिखाए। पीछे सब देव, दानव, गन्धर्व, किन्नर, यक्ष, ऋषि, मुनि, लोकपाल, दिगपाल औ सब देसो के भूपाल लिख लिख एक एक कर चित्ररेखा ने दिखाया, पर ऊपा ने अपना चाहीता उनमें न पाया। फिर चित्ररेखा जदुबंसियो की मूरत एक एक लिख लिख दिखाने लगी। इसमें अनरुद्ध का चित्र देखतेही ऊषा बोली―

अब मनचोर सखी मै पायौ। रात यही मेरे ढिग आयौ॥
कर अब सखी तू कछु उपाय। थाको ढृँढ़ कहूँ ते ल्याय॥
सुनकै चित्ररेख यो कहै। अब यह मोते किम बच रहे॥

यौ सुनाय चित्ररेखा पुन बोली कि सखी, तू इसे नहीं जानती मैं पहचानू हूँ, यह यदुबंसी श्रीकृष्णचंदजी का पोता, प्रद्युम्नजी का बेटा और अनरुद्ध इसका नाम है। समुद्र के तीर नीर में द्वारका नाक एक पुरी है तहॉ यह रहता है। हरि आज्ञा से उस पुरी की चौकी आठ पहर सुदरसन चक्र देता है इसलिए की कोई दैत्य, दानव, दुष्ट आय जदुबंसियों को न सतावै और जो कोई पुरी में आवे सो बिन राजा उग्रसेन सूरसेन का आज्ञा न आने पावे। महाराज, इस बात के सुनतेही ऊषा अति उदास हो. बोली कि सखी जो वहाँ ऐसी बिकट ठाँव है तो तू किस भॉति तहाँ जाय मेरे कंत को लावेगी। चित्ररेखा ने कहा ― आली तू इस बात से निचित रह मैं हरि प्रताप से तेरे प्रानपति को ला मिलाती हूँ।

इतना कह चित्ररेखा रामनामी कपड़े पहन, गोपीचंदन का ऊर्द्धपुड तिलक काढ़, छापे उर भुजमूल औ कंठ में लगाय, बहुतसी