पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/३६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३२०)


नही। तब किसी ने द्वारका में जाय श्रीकृष्णजी से कहा कि महाराज, बन मे अंधे कुएँ के भीतर एक बड़ा मोटा भारी गिरगिट है, उसे सब कुँँवर काढ हारे पर वह नहीं निकलता।

इतनी बात के सुनते ही हरि उठ धाए और चले चले वहाँ आए जहॉ सब लड़के गिरगिट को निकाल रहे थे। प्रभु को देखते ही सब लड़के बोले कि पिता देखो यह कितना बड़ा गिरगिट है, हम बड़ी बेर से इसे निकाल रहे हैं यह निकलती नहीं। महाराज, इस बचन को सुन जो श्रीकृष्णचंदजी ने कुएँ में उतर उसके शरीर से चरन लगाया, तो वह देह को छोड़ अति सुंदर पुरुष हुआ।

भूपति रूप रह्यौ गहि पाय। हाथ जोड़ बिनबै सिर नाय॥

कृपासिन्धु, आपने बड़ी कृपा की जो इस महा बिपत में आय मेरी सुध ली। शुकदेवजी बोले राजा, जब वह मनुष रूप हो हरि से इस ढब की बाते करने लगा, तब यादवो के बालक औ हरि के बेटे पोते अचरज कर श्रीकृष्णचंद से पूछने लगे कि महाराज, यह कौन है और किस पाप से गिरगिट हो यहॉ रहा था, सो कृपाकर कहो तो हमारे मन का संदेह जाय। उस काल प्रभु ने आप कुछ न कह उस राजा से कहा―

अपनौ भेद कहौ समझाय। जैसे सबै सुनै मन लाय॥
को हौ आप कहाँ ते आए? कौन पाप यह काया पाए?
सुनकै नृग कह जोरे हाथ। तुम सब जानत हौ युदुनाथ॥

तिसपर आप पूछते हो तो मैं कहता हूँ, मेरा नाम है राजा नृग। मैंने अनगिनत गौ ब्राह्मनों को तुम्हारे निमित्त दीं। एक दिन की बात है कि मैंने कितनी एक गाय संकल्प कर ब्राह्मनो को