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दीं, दूसरे दिन उन गायों में से एक गाय फिर आई सो मैंने और गायों के साथ अनजाने दूसरे द्विज को दान कर दी। जों वह लेकर निकला तों पहले ब्राह्मन ने अपनी गौ पहचान इससे कहा―यह गाय मेरी है मुझे कल राजा के ह्मॉ से मिली है तू इसे क्यो। लिये जाता है। वह बोला मै अभी राजा के ह्मॉ से लिये चला आती हूँ तेरी कैसे हुई। महाराज, वे दोनो विप्र इसी बात पर झगड़ते झगड़ते मेरे पास आए। मैंने उन्हें समझाया और कहा कि एक गाय के पलटे मुझ से लाख रुपैया लो औ तुममें से कोई यह गाय छोड़ दो।

महाराज, मेरा कहा हठ कर उन दोनों ने ने माना। निदान गौ छोड़ क्रोध कर वे दोनों चले गए। मैं अछताय पछताय मनमार बैठ रहा। अन्त समै जम के दूत मुझे धर्मराज के पास ले गये धर्मराज ने मुझ से पूछा कि राजा तेरा धर्म है बहुत औ पाप थोड़ा, कह पहले क्या भुगतेगा। मैने कहा―पाप। इस बात के सुनते ही महाराज, धर्मराज बोले कि राजा, तैने ब्राह्मन को दी हुई गाय फिर दान की, इस अधर्म से तू गिरगिट हो पृथ्वी पर जाय गोमती तीर बन के बीच अंघकूप मे रह। जब द्वापर युग के अन्त मे श्रीकृष्णचंद अवतार ले तेरे पास जायँगे तब तेरा उद्धार हो।

महाराज, तभी से मै सरट स्वरूप इस अंधकूप में पड़ा आपके चरन कमल को ध्यान करता था, अब आय आपने मुझे महाकष्ट से उबारा औ भवसागर से पार उतारा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इतना कह राजा नृग तो विदा हो बिमान में बैठ