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भुलाय द्वारका में जाय छाय रहे औ देखो बहन देवकी रोहनी भी हमारी प्रीति छोड़ बैठी।

मथुरा ते गोकुल ढिग जान्यौ। बसी दूर तबही मन मान्यौ॥
भेटन मिलन आवते हरी। फिर न भिलै ऐसी उन करी॥

महाराज, इतना कह जब जसोदाजी अति व्याकुल हो रोने लगीं, तव बलरामजीने बहुत समझाय बुझाय असा भरोसा दे उनको ढाढ़स बँधाया। पुनि आप भोजन कर पान खाय घर से बाहर निकले तो क्या देखते हैं, कि सब ब्रज युवती तनछीन, मनमलीन, छुटे केस, मैले भेप, जी हारे, घर बार की सुरत बिसारे, प्रेम रंग रातीं, जोबन की मातीं, हरिगुन गातीं, बिरह मे व्याकुल जिधर तिधर मत्तवत चली जाती है। महाराज, बलरामजी को देखते ही अति प्रसन्न हो सब दौड़ आईं औ दडवत कर हाथ जोड़ चारों ओर खड़ी हो लगीं पूछने औ कहने कि कहो बलराम सुखधाम, अब कहॉ बिराजते है हमारे प्रान सुंदर श्याम? कभी हमारी सुरत करते हैं बिहारी, कै राज पाट पाय पिछली प्रीति सब बिसारी। जब से ह्यॉ से गये हैं तब से एक बार ऊधो के हाथ जोग का संदेसा कह पठाया था, फिर किसी की सुध न ली। अब जाय समुद्र माहीं बसे तो काहे को किसी की सोध लेगे। इतनी बात के सुनतेही एक गोपी बोल उठी कि सखी, हरि की प्रीति का कौन करै परेखा, उनका तो देखा सब से यही लेखा।

वे काहू के नाहिन ईठ। मात पिता कौ जिन दई पीठ॥
राधा बिन रहते ही घरी। सोऊ है बरसाने परी॥

पुनि हम तुमने घर बार छोड़, कुल कान लोक लाज तज, सुत पनि त्याग, हरि से नेह लगाये क्या फल पाया। निदान नेह