पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/३९३

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किये पौर पर खड़ा है, जो आज्ञा पावे तो आवे। हरि बोले―अभी लाव। प्रभु के मुख से बात निकलते ही द्वारपाल हाथोहाथ ब्राह्मन को सनमुख ले गये। बिप्र को देखते ही श्रीकृष्णचंद सिंहासन से उतर दंडवत कर आगृ बढ़ हाथ पकड़ उसे मंदिर में ले गए औ रत्न सिंहासन पर अपने पास बिठाये पूछने लगे कि कहो देवता, आपको अना कहॉ से हुआ औ किस कार्य के हेतु पधारे? ब्राह्मन बोला―कृपासिधु, दीनबंधु, मैं मगध देस से आया हूँ औ बीस सहस्र राजाओं का संदेसा लाया हूँ। प्रभु बोले―सो क्या? ब्राह्मन ने कहा महाराज, जिन बीस सहस्र राजाओ को जरासंध ने बल कर पकड़ हथकड़ी बेड़ी दे रक्खा है , तिन्होने मेरे हाथ आपको अति बिनती कर यह संदेसा कहला भेजा है। दीनानाथ, तुम्हारी सदा सर्वदा यह रीति है कि जब जब असुर तुम्हारे भक्तो को सताते हैं, तब तब तुम अवतार ले अपने भक्तों की रक्षा करते हो। नाथ, जैसे हिरनकस्यप से प्रह्लाद को छुड़ाया औ गज को ग्रह से, तैसे ही दया कर अब हमे इस महादुष्ट के हाथ से छुड़ाइये, हम महाकष्ट में हैं। तुम बिन और किसी को समर्थ नहीं जो इस महा विपत से निकाले और हमारा उद्धार करे।

महाराज, इतनी बात के सुनते ही प्रभु दयाल हो बोले कि हे देवता, तुम अब चिंता मत करो विनकी चिंता मुझे है। इतनी बात के सुनते ही ब्राह्मन संतोष कर श्रीकृष्णचंद को आसीस देने लगा। इस बीच नारदजी आ उपस्थित हुए। प्रनाम कर श्रीकृष्णाचंद ने इनसे पूछा कि नारदजी, तुम सब ठौर जाते आते हो, कहो हमारे युधिष्ठिर आदि पॉचो पॉडवे इन दिनों कैसे हैं।