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कह सुनाया। बात के सुनते ही परशुरामजी इतना कह वहॉ गए, जहाँ सहस्रार्जुन अपनी सभा में बैठा था कि माता, पहले मैं अपने पिता के बैरी को मारि आऊँ तब आय पिता को उठाऊँगा। उसे देखते ही परशुरामजी कोप कर बोले―

अरे क्रूर, कायर, कुल द्रोही। तात मारि दुख दीनौं मोही॥

ऐसे कह जब फरसा ले परशुरामजी महा कोप में आये, तब वह भी धनुष बान ले इनके सोंही खड़ा हुआ। दोनों बली महायुद्ध करने लगे। निदान लड़ते लड़ते परशुरामजी ने चार घड़ी के बीच सहस्रार्जुन को मार गिराया, पुनि उसका कटक चढ़ि आया जिसे भी इन्होने उसी के पास काट डाला। फिर वहॉ से आय पिता की गति करी औ माता को समझाय पुनि उसी ठौर परशुरमिजी ने रुद्रयज्ञ किया, तभी से वह स्थान क्षेत्र कहकर प्रसिद्ध हुआ। वहॉ जाकर प्रहन में जो कोई दान स्नान तप यज्ञ करता है उसे सहस्रगुना फल होता है।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, इस प्रसंग के सुनते ही सब जदुबंसियो ने प्रसन्न हो श्रीकृष्णचंदजी से कहा कि महाराज, शीत्घ्र कुरुक्षेत्र को चलिये अब बिलम्ब न करिये, क्योंकि पर्व पर पहुँचा चाहिए। बात के सुनते ही श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी ने राजा उग्रसेन से पूछा कि महाराज, सब कोई कुरक्षेत्र को चलेगा यहॉ पुरी की चौकसी को कौन रहेगा। राजा उग्रसेन ने कहा― अनिरुद्धजी को रख चलिये। राजा की आज्ञा पाय प्रभु ने अनिरुद्ध को बुलाय समझायकर कहा कि बेटा, तुम यहाँ रहो, गौ ब्राह्मन की रक्षा करो औ प्रजा को पालो। हम राजाजी के साथ सब जदुबंसियों