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अट्ठासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, भगवत की अद्भुत लीला है, इसे सब कोई जानता है, जो जन हरि की पूजा करे सो दरीद्री होय औ और देव को माने सो धनवान। देखो हरि हर की कैसी रीति है। ये लक्ष्मीपति, वे गवरीपतिं। ये धरें धनमाल, वे मुँडमाल। ये चक्रपानि, के त्रिशूलपानि। ये धरनीधर, वे गंगाधर। ये मुरली बजावे, वे सींगी। ये बैकुंठनाथ, वे कैलाशवासी। ये प्रतिपाले, वे संहारें। ये चरखें चंदन, वे लगावे भभूत। ये ओढ़े अबर, वे बाघंबर। ये पढे वेद, वे आगम। इनका वाहन गरुड़, उनका नंदी। ये रहें ग्वाल बालो में, वे भूत प्रेतो में।

दोऊ प्रभु की उलटी रीति। जित इच्छा तित कीजे प्रीति॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, राजा युधिष्ठिर से श्रीकृष्णचंद ने कहा है कि हे युधिष्ठिर, जिसपर मैं अनुग्रह करता हूँ हौले हौले उसका सब धन खोता हूँ। इसलिये कि धन हीन को भाई बंधु स्त्री पुत्र आदि सब कुटुंब के लोग तज देते हैं, तब विसे बैराग उपजता है, बैराग होने से धन जन की माया छोड़ निरमोही हो मन लगाय भजन करता है. भजन के प्रताप से अटल निर्वान पद पाता है। इतना कह पुनिंं शुकदेवजी कहने लगे कि महाराज, औ देवता की पूजा करने से मनकामना पूरी होती है पर मुक्ति नहीं मिलती।

यह प्रसंग सुनाये मुनि ने पुनि राजा परीक्षित से कहा कि महाराज, एक समैं कश्यप का पुत्र विकासुर तप करने की अभि-