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भाषा और भाषा से संस्कृत अनुवाद किया था, पर केवल चंद्रावती ही प्राप्त है। वि॰ सं॰ १८५५ में ये कलकत्ते गए थे और वहीं जौन गिलक्राइस्ट की आज्ञा से इन्होंने नासिकेतोपाख्यान का हिंदी अनुवाद किया और उसका चंद्रावती नाम रखा। यह सं॰ १८८८ के पहले देश लौट आए होंगे, क्योंकि उसी वर्ष इन्होंने ग्यारह सहस्र रुपए पर तीन ग्रामों का ठेका लिया था। उदा॰-

'धर्मराज के लोक में भाँति भाँति के लोग और बृक्षों से भरी चार सौ कोस लंबी चौड़ी चार द्वार की यमराज की पुरी है कि जिसमें सदा आप वे अनेक गण, गंधर्व ऋषि व योगियों के मध्य में धर्म का विचार किया करते हैं। तिस पुरी में जिस द्वार से प्राणी जाता है सो मैं तुमसे कहता हूँ।'