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झोटे पकड़ रथ से नीचे खेंच लाया। खड़ग हाथ में ले दाँत पीस पीस लगा कहने, जिस पेड़ को जड़ही से उखाड़िये तिसमें फूल फल काहे को लगेगा, अब इसी को मारूँ तो निर्भय राज करूँ। यह देख सुन बसुदेव मन में कहने लगे―इस मूरख ने दिया संताप, जानता नहीं है पुन्य औ पाप, जो मैं अब क्रोध करता हूँ तो काज बिगड़ेगा; तिससे इस समै क्षमा करनी जोग है। कहा है,

जो बैरी खैंचे तरवार, करे साध तिस की मनुहार।
समझ मूढ़ सोई पछताय, जैसे पानी आग बुझाय॥

यह सोच समझ बसुदेव कंस के सोहीं जो हाथ जोड़ बिनती कर कहने लगे कि सुनो पृथ्वीनाथ, तुम-सा बली संसार में कोई नहीं और सब तुम्हारी छाँह तले बसते हैं। ऐसे सूर हो स्त्री पर शस्त्र करो, यह अति अनुचित है और बहन के मारने से महा पाप होता है, तिसपर भी मनुष्य अधर्म तो करे जो जाने कि मैं कभी न मरूँगा। इस संसार की तो यह रीति है, इधर जन्मा, उधर मरो, करोड़ जतन से पाप पुन्य कर कोई इस देह को पोखे, पर यह कभी अपनी न होयगी और धन, जोबन, राज भी न आवेगा कोज। इससे मेरा कहा मान लीजे औ अपनी अबला अधीन बहन को छोड़ दीजे। इतना सुन वह अपना काल जान घबराकर और भी झुँझलाया। तब बसुदेव सोचने लगे कि यह पापी तो असुर बुद्धि लिये अपने हठ की टेक पर है, जिसमे इसके हाथ से यह बचे सो उपाय किया चाहिये। ऐसे विचार मन में कहने लगे, अब तो इससे यो कह देवकी को बचाऊँ कि जो पुत्र मेरे होगा सो तुम्हे दूंगा, पीछे किसने देखी है लड़काही न होथ, कै यही दुष्ट मरे, यह औसर तो टले फेर समझी जायगी।