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सोलहवाँँ अध्याय

श्रीशुकदेव बोले—महाराज, जब श्रीकृष्ण आठ बरस के हुए तब एक दिन विन्होने जसोदा से कहा कि मा, मैं गाय चरावन जाऊँगा, तू बाबा से समझायकर कह जो मुझे ग्वालो के साथ पठाय दे। सुनतेही जसोदा ने नंदजी से कहा, विन्होने शुभ महूर्त ठहराय ग्वाल बालो को बोलाय, कातिक सुदी आठे को राम कृष्ण से खरक पुजवाय बिनती कर ग्वालों से कहा कि भाइयो, आज से गौ चरावन अपने साथ राम कृष्ण को भी ले जाया करो, पर इनके पास ही रहियो, बन में अकेले न छोड़ियो। ऐसे कह छाक दे, कृष्ण बलराम को दही का तिलक कर सबके संग बिदा किया। वे मगन हो ग्वाल बालों समेत गायें लिये बन में पहुँचे, तहाँ बन की छबि देख श्रीकृष्ण बलदेवजी से कहने लगे― दाऊ, यह तो अति मतभावनी सुहावनी ठौर है, देखो कैसे वृक्ष झुक झुक रहे है औ भाँति भाँति के पशु पंछी कलोले करते है। ऐसे कह एक ऊँचे टीले पर जा चढे़, और लगे दुपट्टा फिराय फिराय कारी, गोरी, पीरी, धौरी, धूमरि, भूरी, नीली, कह कह पुकारने। सुनते ही सब गाये रॉभती होंकतीं दौड़ आईं। तिस समै ऐसी सोभा हो रही कि जैसे चारो ओर से बरन बरन की घटा घिर आई होय।

फिर श्रीकृष्णचंद गौ चरने को हाँक, भाई के साथ छाक खाय कदम की छाँह में एक सखा की जाँघ पै सिर धर सोये। कितनी एक बेर में जो जागे तो बलरामजी से कहा―दाऊ, सुनो, खेल