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प्रेमाश्रम

जवाब सद्व्यवहार हो सकता है, स्वार्थ त्याग नहीं। फिर क्या कलह और अपवाद से? कदापि नहीं, इससे मेरा पक्ष और भी निर्बल हो जायेगा। इस प्रकार भटकते-भटकते उछल पड़े। वाह! मैं भी कितना मन्द-बुद्धि हैं। विरादरी इन महाशय को घर में पैर तो रखने देगी नहीं, यह बेचारे मुझसे क्या छेड़ छाड़ करेंगे। आश्चर्य है अब तक यह छोटी-सी बात भी मेरे ध्यान में न आयी। राय साहब को भी न सूझी। बनारस आते ही लाला पर चारों ओर से बौछारें पड़ने लगेगी, उनके बहाँ पैर भी न जमने पायेंगे। प्रकट में मैं उनसे भ्रातृवत् व्यवहार करता रहूंगा, बिरादरी की सकीर्णता और अन्याय पर आंसू बहाऊँगा, लेकिन परोक्ष में उसकी कील घुमाता रहूँगा। महीने दो महीने में आप ही भाग खड़े होगे। शायद श्रद्धा भी उनसे खिंच जाय। उसे कुछ उत्तेजित करना पड़ेगा। धार्मिक प्रवृति की स्त्री हैं। लोकमत का असर उस पर अवश्य पड़ेगा। बस, मेरा मैदान साफ है। इन महाशय से डरने की कोई जरूरत नहीं। अब मैं निर्भय हो कर भ्रातृ-स्नेह आचरण कर सकता हूँ।

इस विचार से ज्ञानशंकर इतने उत्फुल्ल हुए कि जी चाहा चल कर विद्या को जगाऊँ, पर जब्त से काम लिया। इस चिन्ता-सागर से निकल कर अब उन्हें शंका होने लगी कि गायत्री की अप्रसन्नता भी मेरा भ्रम है। मैं स्त्रियों के मनोभावों से सर्वथा अपरिचित हैं। सम्भव है, मैंने उतावलापन किया हो, पर यह कोई ऐसा अपराध न था कि गायत्री उसे क्षमा न करती। मेरे दुस्साहस पर अप्रसन्न होना उसके लिए स्वाभाविक बात थी। कोई गौरवशाली रमणी इतनी सहज रीति से वशीभूत नहीं हो सकती। अपने सतीत्व-रक्षा का विचार स्वभावत उसकी प्रेम वासना को दबा देता है। ऐसा न हो, तो भी वह अपनी उदासीनता और अनिच्छा प्रकट करने के लिए कठोरता का स्वांग भरना आवश्यक समझती है। शायद इससे उसका अभिप्राय प्रेम-परीक्षा होता है। वह एक अमूल्य वस्तु है! और अपनी दर गिराना नहीं चाहती। मैं अपनी असफलता से ऐसा दबा कि फिर सिर उठाने की हिम्मत ही न पड़ी। वह यह कई दिन रही। मुझे जा कर उससे क्षमा माँगनी चाहिए थी। वह कुछ होती तो शायद मुझे झिड़क देती। वह स्वयं निर्दोष बनना चाहती थी और सारा दोष मेरे सिर रखती। मुझे यह वानप्रहार सहना चाहिए था और थोड़े दिनों में मैं उसके हृदय का स्वामी होता। यह तो मुझसे हुआ नहीं, उलटे आप ही रूठ बैठा, स्वयं उससे आँखें चुराने लगा। उसने अपने मन में मुझे बोदा, साहसहीन, निरा बुद्द समझा होगा। खैर, अब कसर पूरी हुई जाती है। यह मानों अन्त प्रेरणा है। इस जीवन-चरित्र के निकलते ही मकी अवज्ञा और अभिमान का अन्त हो जायेगा। मान-प्रतिष्ठा पर जान देती है। राय साहब स्वयं स्त्री के भेष में अवतरित हुए हैं। उसकी यह आकांक्षा पूरी हुई तो फूली न समायेगी और जो कही रानी की पदवी मिल गयी तो वह मेरा पानी भरेगी। भैया के झमेले से छुट्टी पाऊँ तो यह खेल शुरू करूं। मालूम नहीं अपने पत्रों में कुछ मेरा कुशल-समाचार भी पूछती है या नहीं। चलू, विद्या से पूछे। अबकी वह इस प्रबल इच्छा को न रोक सके। विद्या बगल के कमरे मे सोती थीं। जा कर उसे जगाया।