हुआ ही न था। केवल दुखरन भगत अपनी जगह से न हिले।
प्रेमशंकर ने तहसीलदार से कहा, आपकी इजाजत हो तो यह आदमी अपने घर जाय। इसे बहुत चोट आ गयी है।
तहसीलदार ने कुछ सोच कर कहा, हाँ, जा सकता है।
भगत चुपके से उठे और धीरे-धीरे घर की और चले। इधर दम के दम भी आदमियों ने मैदान लीप-पोत कर तैयार कर दिया। सब ऐसा दौड़-दौड़ कर उत्साह है काम कर रहे थे मानों उनके घर बरात आयी हो।
सन्ध्या हो गयी थी। प्रेमशंकर जमीन पर बैठे हुए विचारों में मग्न थे—कब तक गरीबों पर यह अन्याय होगा? कब उन्हें मनुष्य समझा जायगा? हमारा शिक्षित समुदाय कब अपने दीन भाइयों की इज्जत करना सीखेगा? कब अपने स्वार्थ के लिए अपने अफसरों की नीच खुशामद करना छोड़ेगा।
इतने में तहसीलदार साहब सामने आ कर खड़े हो गये और विनय भाव से बोले, आपको यहाँ तकलीफ हो रही है, मेरे खेमे में तशरीफ ले चलिए। माफ कीजिएगा, मैंने आपको पहचाना न था। गरीबों के साथ हमदर्दी देख कर आपकी तारीफ करने को जी चाहता है। आप बड़े खुशनसीब है कि सुदा ने आपको ऐसा दर्दमन्द दिल अता फरमाया है। हम बदनसीबों की जिन्दगी तो अपनी तनपरवरी में ही गुजरती जाती है। क्या करूं? अगर अभी साफ कह दें कि बेगार में मजदूर नहीं मिलते तो नालायक समझा जाऊँ। आँखो से देखता हूँ कि मजदूरों को आठ आने रोज मिलते हैं, पर इन साहब बहादुर से इतनी मजूरी मांगें तो वह हर्गिज न देंगे। सरकार ने कायदे बहुत अच्छे बनाये हैं, लेकिन ये हुक्काम उनकी परवा ही नहीं करते। कम से कम ५० रू. के मिट्टी के बर्तन उठे होंगे। लकड़ी, भूसा, पुआल सैकड़ो मन खर्च हो गये। कौन इनकी कीमत देता है। अगर कायदे पर अमल करने लगें तो एक लमहे मर रहना दुश्वार हो जाये और मैं अकेला कर ही क्या सकता हूं। मेरे और भाई भी तो है। उनकी सख्तियाँ आप देखें तो तो तले उँगली दबा ले। खुदा ने जिसके घर में रूखी रोटियां भी दी हो, वह कभी यह मुलाजमत न करे। आइए, बैठिए, आपको सैकड़ो दास्ताने सुनाई, जिनमें तहसीलदारों को कायदे के मताबिक अमल करने के लिए जहन्नुम में भेज दिया गया है। मेरे ऊपर खुद एक बार गुजर चुकी है।
प्रेमशंकर को तहसीलदार से सहानुभूति हो गयी। समझ गये कि यह बेचारे विवश हैं। मन मे लज्जित हुए कि मैंने अकारण ही इनसे अविनय की। उनके साथ खेमे में चले गये। वहाँ बहुत देर तक बात होती रही। तहसीलदार साहब बडे साधु सज्जन निकले। अधिकार-विषयक घटनाएँ समाप्त हो चुकी तो अपनी पारिवारिक कठिनाइयों का बयान करने लगे। उनके तीन पुत्र कालेज में पढ़ते थे। दो लड़कियाँ विधवा हो गयी थी। एक विधवा बहिन और उसके बच्चों का भार भी सिर पर था। २०० रु० में बड़ी मुश्किल से गुजर होता था। अतएव जहाँ अवसर और सुविधा देखते थे, वहीं रिश्वत लेने में उच्च न था। उन्होंने यह वृत्तान्त ऐसे सरल और नम्र भाव से कहा कि