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प्रेमाश्रम

हलका हो जाता था। जब इस दशा में भी हम सतुष्ट और प्रसन्न रह सकते हैं. यशस्वी बन सकते हैं, दूसरों की सहायता कर सकते हैं, प्रेम और श्रद्धा के पात्र बन सकते हैं तो फिर घन पर जान देना व्यर्थ है। उन्हें ज्ञात होता था कि सफल जीवन के लिए धन कोई अनिवार्य साधन नहीं है। उन्हें खेद होता था कि मेरी आवश्यकताएँ क्यो इतनी वढ़ी हुई हैं। मैं डाक्टर हो कर रसना का दास क्यों बना हैं, सुन्दर वस्त्रों पर क्यों भरती हूँ। इन्हीं के कारण तो मैं सारे नगर में बदनाम था, लोभी, स्वार्थी, निदेय बना हुआ था और अब भी हैं। लोगों को शक होती थी कि कहीं यहू रोग को बढ़ा न दे, इस लिए जल्दी कोई मुझे बुलाता न था। इन विचारों का डाक्टर साहब के रहन-सहन पर प्रभाव पड़ने लगी।

एक दिन डाक्टर साहब किसी मरीज को देख कर लौटते हुए प्रेमशंकर की कृषि शाला के सामने से निकले। दस बज गये थे। धूप तेज थी। सूर्य की प्रखर किरणें आकाश मेडल को बाणो से छेदती हुई जान पड़ती थी। डाक्टर साहब के जी में नयी देखता चलूँ। क्या कर रहे हैं? अन्दर पहुँचे तो देखा कि वह अपने झोपड़े के वृक्ष के नीचे खड़े गेहूं के पोले बिखेर रहे थे। कई मजूर छौनी कर रहे थे। प्रियनाथ को देखते ही प्रेमशंकर झोपड़े में आ गये और बोले घूप तेज है।

प्रियनाथ–लेकिन आप तो इस तरह काम में लगे हुए है मानो घूप है ही नहीं।

प्रेम–उन मजूरो को देखिए! धूप की कुछ परवाह नहीं करते।

प्रियनाथ-हमे इस कृत्रिम जीवन नै चौपट कर दिया, नहीं तो हम भी ऐसे हो आदमी होते और अम को बुरा न समझते।

प्रेमशंकर कुछ और कहना चाहते थे कि इतने में दो वृद्धाएँ सिर पर लकड़ी के गर्छ, रखे आयी और पूछने लगी–सरकार, लकड़ी ले लों। इन स्त्रियों के पीछे-पीछे लड़के भी लकड़ी के बोझ लिये हुए थे। सबो के कपड़े तरबतर हो रहे थे। छाती और पसली की हड्डियां निकली हुई थी, ओठ सूखे हुए, देह पर मैल जमी हुई, उस पर सूखे हुए पसीने की घारियाँ सी बन गयी थी। प्रेमशंकर ने लकड़ी के दाम पूछे, सबके गड्ढे इतरवा लिये, लेकिन देखा तो सन्दूक में पैसे न थे। गुमास्ता को रुपया भुनाने को दिया। दोनों वृद्धाएँ वृक्ष के नीचे छाँह मे वैठ गयी और लड़के बिखरे हुए दाने चुनचुन खाने लगे। प्रेमशंकर को उन पर दया आ गयी। थोड़े-थोड़े मटर सब लइको को दे दिये । दोनो स्त्रियाँ आशीष देती हुई बोलीं-बाबू जी, नारायण तुम्हे सदा सुखी रखें। इन बेचारो ने अभी कलेवा नहीं किया है।

प्रेम—तुम्हारा घर कहाँ है?

एक बुढ़िया—सरकार, लखनपुर का नाम सुना होगा।

प्रियनाथ—आपने गढ़े देखे नहीं, सवो ने खूब कैची लगायी है।

मशकर–दरिद्रता सब कुछ करा देती है। (वृद्धा से) तुम लोग इतनी दूर लकड़ी बेचने आ जाती हो?

वृद्धा—क्या करे मालिक, बीच कोई वस्ती नहीं है। घड़ी रात के चले है, चुप