पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/२९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३०१
प्रेमाश्रम

न कीजिए। यह कहते-कहते उसका गला रुंध गया और वह भाव जो व्यक्त न हो सके थे आँखो से बह निकले।

राय साहब ने संकोच-पूर्ण शब्दों में कहा—बुराई नहीं करता, यथार्थ कहता हूँ। मुझे अब मालूम हुआ कि उसने महात्माओं का स्वरूप क्यों बनाया है, और धार्मिक कार्यों में क्यों इतना प्रवृत्त हो गया है। मैंने उसके मुंह से सब कुछ निकलवा लिया। यह रंगीन जाल उसने भोली-भाली गायत्री के लिए बिछाया है और वह कदाचित् इसमें फँस भी चुकी है।

विद्या की भौहे तन गयी, मुखराशि रक्तवर्ण हो गयी। गौरवयुक्त भाव से बोली---- पिता जी, मैंने सदैव आपको अदब किया है और आपकी अवज्ञा करते हुए मुझे जितना दुख हो रहा है वह वर्णन नहीं कर सकती, पर यह असम्भव है कि उनके विषय में यह लाछन अपने कानों से सुनें। मुझे उनकी सेवा में आज सत्रह वर्ष बीत गये, पर मैंने उन्हें कभी कुवासना की और झुकते नहीं देखा। जो पुरुष अपने यौवन-काल में भी संयम से रहा हो उसके प्रति ऐसे अनुचित सन्देह करके आप उसके साथ नहीं, गायत्री बहिन के साथ भी घोर अत्याचार कर रहे हैं। इससे आपकी आत्मा को पाप लगता है।

राय साहब तुम मेरी आत्मा की चिन्ता मत करो। उस दुष्ट को समझाओ, नहीं तो उसकी कुशल नहीं है। मैं गायत्री को उसकी काम-धेष्टा का शिकार न बनने दूंगा। मैं तुमको वैधव्य रूप में देख सकता हूँ, पर अपने कुल-गौरव को यो मिट्टी में मिलते नही देख सकता। मैंने चलते-चलते उससे ताकीद कर दी थी, गायत्री से कोई सरोकार न रखे, लेकिन गायत्री के पत्र नित्य चले आ रहे हैं, जिससे विदित होता है कि वह उसके फन्दो से कैसी जकड़ी हुई है। यदि तुम उसे बचा सकती हो तो बचाओ, अन्यथा यही हाथ जिन्होने एक दिन उसके पैरो पर फूल और हार चढ़ाये थे, उसे कुल गौरव की वेदी पर बलिदान कर देंगे।

विद्या रोती हुई बोली—आप मुझे अपने घर बुला कर इतना अपमान कर रहे है, यह आपको शोभा नहीं देता। आपका हृदय इतना कठोर हो गया है। जब आपके मन मे ऐसे-ऐसे भाव उठ रहे हैं तब मैं यहाँ एक क्षण भी नहीं रहना चाहती। मैं जिस पुरुष की स्त्री हूँ उसपर सन्देह करके अपना परलोक नहीं बिगाड़ सकती। वह आपके कथनानुसार कुचरित्र सही, दुरात्मा सही, कुमार्गी सही, परन्तु मेरे लिए पूज्य और देवतुल्य है। यदि मैं जानती कि आप मेरा इतना अपमान करेंगे तो भूल कर भी न आती। अगर आपका विचार है कि मैं रियासत के लोभ से यहाँ आती हैं और आपको फन्दे में फंसाना चाहती हैं तो आप बड़ी भूल करते हैं। मुझे रियासत की जरा भी परवाह नहीं। मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हैं कि मैं अपनी स्थिति से सन्तुष्ट हूँ और मुझे पूरा विश्वास है कि मायाशंकर भी सन्तोषी बालक है। उसे आपके चित्त की यह वृत्ति मालूम हो गयी तो वह इस रियासत की और आँख उठा कर भी न देखेगा। आपको इस विषय में आदि से अन्त तक धोखा हुआ है।