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प्रेमाश्रम

यो भ्रष्ट किया, उसकी मिट्टी यो खराब की!

किन्तु जब उसने गायत्री को सिर झुका कर चीख-चीख कर रोते देखा तो उसको हृदय नम्र हो गया, और जब गायत्री आ कर पैरो पर गिर पड़ी तब स्नेह और भक्ति के आवेश से आतुर हो कर बह बैठ गयी और गायत्री का सिर उठा कर अपने कधे पर रख लिया। दोनों बहिने रोने लगी, एक ग्लानि दूसरी प्रेमोद्रेक से।

अब तक ज्ञानशंकर दुविधा में खड़े थे, विद्या पर कुपित हो रहे थे, पर जबान से कुछ कहने का साहस न था। उन्हे शंका हो रही थी कि कही यह शिकार फन्दा तोड़ कर भाग न जाय। गायत्री के रोने-धोने पर उन्हें बड़ा क्रोध आ रहा था। जब तक गायत्री अपनी जगह पर खड़ी रोती रहीं तब तक उन्हें आशा थी कि इस चोट की दवा हो सकती है, लेकिन जब गयित्री जा कर विद्या के पैरों पर गिर पड़ीं और दोनो बहिने गले मिल कर रोने लगी तब वह अधीर हो गये। अब चुप रहना जीती-जितायी बाजी को हाथ से खोना, जाल में फंसे हुए शिकार को भगाना था। उन्होंने कर्कश स्वर से विद्या से कहा- तुमको बिना आज्ञा किसी के कमरे में आने का क्या अधिकार है?

विद्या कुछ न बोली। गायत्री ने उसकी गर्दन और जोर से पकड़ ली मानी डूबने से बचने का यही एक एकमात्र सहारा है।

ज्ञानशंकर ने और सरोष हो कर कहा- तुम्हारे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं और तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम इसी दम यहाँ से चली जा नहीं तो मैं तुम्हारा हाथ पकड़ कर बाहर निकाल देने पर मजबूर हो जाऊँगा। तुम कई बार मेरे मार्ग का काँटा बन चुकी हो, लेकिन अब की बार मैं तुम्हे हमेशा के लिए रास्ते से हटा देना चाहता हूँ।

विद्या ने तेवरियाँ बदल कर कहा- मैं अपनी बहिन के पास आयी हैं, जब तक वह मुझे जाने को न कहेगी, मैं न जाऊँगी।

ज्ञानशंकर ने गरज कर कहा--चली जा, नहीं तो अच्छा न होगा!

विद्या ने निर्भीकता से उत्तर दिया-कभी नहीं, तुम्हारे कहने से नहीं!

ज्ञानशंकर क्रोध से काँपते हुए तडिद्वेग से विद्या के पास आये और चाहा कि झपट कर उसका हाथ पकड़ लें कि गायत्री खड़ी हो गयी और गर्व से बोली- मेरी समझ में नहीं आता कि आप इतने क्रुद्ध क्यों हो रहे हैं? मुझसे मिलने आयी हैं और मैं अभी न जाने देंगी।

गायत्री की आंखो मे अब भी आँसू थे, गला अभी तक थरथरा रहा था, सिसकियाँ ले रही थी, पर यह विंगत जलोद्देग के लक्षण थे, अब सूर्य निकल आया था। वह फिर अपने आप में आ चुकी थी, उसका स्वाभाविक अभिमान फिर जाग्रत हो रहा था।

ज्ञानशंकर ने कहा---गायत्री देवी, तुम अपने को बिल्कुल भूली जाती हो। मुझे अत्यन्त खेद है कि बरस भक्ति और प्रेम की वेदी पर आत्म-समर्पण करके भी तुम ममत्व के बन्धन में जकड़ी हुई हो। याद करो तुम कौन हो? सोचो मैं कौन हूँ? सोचो मेरा