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प्रेमाश्रम

वह एक गर्वशीला, धर्मनिष्ठा, सन्तोष और त्याग के आदर्श का पालन करनेवाली महिला थी। यद्यपि पति की स्वार्थभक्ति से उसे घृणा थी, पर इस भाव को वह अपनी पति-सेवा में बाधक न होने देती थी। पर जब से उसने रायसाहब के मुँह से ज्ञानशंकर के नैतिक एवं पतन का वृतांत सुना था तब से उसकी पति-श्रद्धा क्षीण हो गयी थी! सब का लज्जास्पद दृश्य देख कर बची-खुची श्रद्धा भी जाती रही। जब ज्ञानशंकर को देख कर गायत्री दीवानखाने के द्वार पर आकर फिर उनके पास चली गयी तो विद्या वहाँ न ठहर सकी। वह उन्माद की दशा में तेजी से ऊपर आयी और अपने कमरे में फर्श पर गिर पड़ी। यह ईर्षा का भाव न था जिससे अहिं चिन्ता होती है, यह प्रीति का भाव न था जिससे रक्त की तृणा होती है। यह अपने आपको जलानेवाली आग थी, यह वह विघातक रोष था जो अपना ही होठ चबाता है, अपना ही चमड़ा नौचता हैं, अपने ही अंगों को दांतों से काटता है। वह भूमि पर पड़ी सारी रात रोती रही। अब मैं किसकी हो कर रहूँ? मेरा पति नहीं, मेरा घर अब मेरा घर नहीं। मैं अब अनाथ हूँ, कोई मेरा पूछनेवाला नहीं। ईश्वर! तुमने किस पाप का मुझे दंड दिया? मैंने तो अपने जानमे किसी का बुरा नहीं चेता। तुमने मेरा सर्वनाश क्यों किया? मेरा सुहाग क्यो लूट लिया? यही एक मेरे धन था, इसी का मुझे अभिमान था, इसी का मुझे बल था। तुमने मेरा अभिमान तोड़ दिया, मेरा बल हर लिया। जब आग ही नहीं तो राख किस काम की। यह सुहाग की पिटारी हैं, यह सुहाग की डिबिया है, उन्हें लेकर क्या करू? विद्या ने सुहाग की पिटारी ताक पर से उतार ली और उसी आत्म-वेदना और नैराश्य की दशा में उनकी एक-एक चीज़ खिड़की से नीचे बाग में फेंक दी। कितना कल्पाजनक दृश्य था? आँखो से अश्रु-धारा बह रही थी और वह अपनी चूड़ियाँ तोड़-तोड़कर जमीन पर फेंक रही थी। वह उसके निर्बल क्रोध की चरम सीमा थी! वह एक ऐश्वर्यशाली पिता की पुत्री थी, यहाँ उसे इतना आराम भी न था जो उसके मैके की महरियों को था, लेकिन उसके स्वभाव में संतोष और धैर्य था। अपनी दशा से संतुष्ट थी। ज्ञानशंकर स्वयं-सेवी थे, लोभी थे, निष्ठुर थे, कृर्तव्यहीन थे, इसका उसे शोक था। मगर अपने थे, उनको सुमझाने का, उनको तिरस्कार करने का उसे अधिकार था। उनकी दुष्टता, नीचता और भोग-विलास का हाल सुन कर उसके शरीर मे आग सी लग गयी थी। वह लखनऊ से दामिनी बनी हुई आयी। वह ज्ञानशंकर पर तड़पना और उसकी कुकृतियों को भस्मीभूत कर देना चाहती थी, वह उन्हें व्यंग-धारों से छेदना और कटु शब्दों से उनके हृदय को बेधना चाहती थी। इस वक्त तक उसे अपने सोहाग का अभिमान था। रात के आठ बजे तक वह ज्ञानशंकर को अपना समझती थीं, अपने को उन्हें कोसने की, उन्हें जलाने की अधिकारिणी समझती थी, उसे उनको लज्जित, अपमानित करने का हक था, क्योंकि वह अपने थे! हमसे अपने घर में आग लगते नहीं देखी जाती। घर चाहे मिट्टी का ढेर ही क्यों न हो, खण्डहर ही क्यों न हो, हम उसे आग में जलते नहीं देख सकतें। लेकिन जब किसी कारण से यह घर अपना न रहे तो फिर चाहे अग्नि-शिखा आकाश तक जाये, हमको