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प्रेमाश्रम

लिए ही यह चाल चली गयी है। इन लोगों ने जो बात मन में ठान ली है वह हो कर रहेगी। पिता जी का शाप मेरी आँखो के सामने है। यह अनर्थ होना है और होगा।

श्रद्धा-जब तुम्हारी यही दशा हे तो जो कुछ हो जाय वह थोडा है।

विद्या ने कुतूहल से देख कर कहा--भला मेरे बस की कौन सी बात है?

श्रद्धा--बस की बात क्यों नहीं है? अभी शाम को जब यह लोग लौटे तब नीचे चली जाओ और माया का हाथ पकड़ कर खीच लायो। वह न आये तो सारी बाते खोल कर उससे कह दो। समझदार लड़का है, तुरन्त उनसे उसका मन फिर जायगा।

विद्या---(सोच कर) और यदि समझाने से भी न आये? इन लोगों ने उसे खूब सिखा-पढ़ा रखा होगा।

श्रद्धा--तो रात को जब शहर के लोग जमा हो, जा कर भरी सभा में कह दो, यह सब मेरी इच्छा के विरुद्ध है। मैं अपने पुत्र को गोद नहीं देना चाहती। लोगो की सब चाले पट पड़ जाये। तुम्हारी जगह मैं होती तो वह महनामथ मचते कि इनके दाँत खट्टे हो जाते हैं क्या करूँ, मेरा कुछ अधिकार नहीं है, नही तो इन्हें तमाशा दिखा देती।

विद्या ने निराश भाव से कहा---बहिन, मझसे यह न होगा। मुझमे न इतनी सामर्थ्य है, न साहस। अगर और कुछ न हो, माया ही मेरी बातों को दुलख दे तो उसी क्षण मेरा कलेजा फट जायगई। भरी सभा में जाना तो मेरे लिए असम्भव है। उधर पैर ही न उठेंगे। उठे भी तो वहाँ जा कर जवान बन्द हो जायेगी।

श्रद्धा---पता नही ये लोग किधर गये हैं। एक क्षण के लिए गायत्री एकान्त मे मिल जाती तो एक बार मैं भी समझा देखती।



५२

दीवानखाने में आनन्दोत्सव हो रहा था। मास्टर अलहदीन का अलौकिक चमत्कार लोगो को मुग्ध कर रहा था। द्वारा पर दर्शको की भीड़ लगी हुई थी। सहन में ठट के ठट कगले जमा थे। मायाशंकर को दिन भर के बाद माँ की याद आयी। वह आज आनन्द से फूला न समीता था। जमीन पर पाँव न पड़ते थे। दौड़-दौड़ कर काम कर रहा था। ज्ञानशंकर बार-बार कहते, तुम आराम से बैठो। इतने आदमी तो हैं। ही, तुम्हारे हाथ लगाने की क्या जरूरत है पर उससे बेकार नहीं बैठा जाता था। कभी लैम्प साफ करने लगता, कभी खदान उठा लेता। आज सारे दिन मोटर पर सैर करता रहा। लौटते ही पद्मशंकर और तेजशंकर से सैर का वृत्तान्त सुनाने लगा, यहाँ गये, वहाँ गये, यह देखा, वह देखा। उसे अतिशयोक्ति में बड़ी मजा आ रहा था। यहाँ से छुट्टी मिली तो हवन पर जा बैठा। इसके बाद भोजन में सम्मिलित हो गया। जब गाना आरंभ हुआ तो उसका चंचल चित्त स्थिर हुआ। सब लोग गाना सुनने में तल्लीन हो रहे थे, उसकी बातें सुननेवाला कोई न था। अब उसे याद आया, अम्माँ को प्रणाम करने तो गया ही नही। ओहो, अम्माँ मुझे देखते ही दौड़ कर छाती