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प्रेमाश्रम

उसकी चिट्ठियाँ खोल कर पढ़ लेते, इस भय से कही राय साहब का कोई पत्र न हो। अगर वह प्रेमशंकर या लाला प्रभाशंकर से कुछ बातें करने लगती तो वह तुरन्त आ कर बैठ जाते और ऐसी असंगत बात करने लगते कि साधारण बातचीत भी विवाद का रूप धारण कर लेती थी। उनके व्यवहार से स्पष्ट विदित होता था कि गायत्री के पास किसी अन्य मनुष्य का उठना-बैठना उन्हें असह्य है। इतना ही नहीं, वह यथासाध्य गायत्री को स्त्रियों से मिलने-जुलने का भी अवसर न देते। आत्माभिमान धार्मिक विषयो में लोकमत को जितना तुच्छ समझता है लौकिक विषयों में लोकमत का उतना ही आदर करता है। गायत्री को विद्या के हत्यापराध से मुक्त होने के लिए घर और महल्ले की स्त्रियों की सहानुभूति आवश्यक जान पड़ती थी। वह अपने बर्ताव से, विद्या की सुकीर्ति के बखान से, यहाँ तक कि ज्ञानशंकर की निन्दा से भी यह उद्देश्य पूरा करना चाहती थी। षोडशे और ब्रह्मभोज के बाद एक दिन उसने नगर की कई कन्या पाठशालाओं का निरीक्षण किया और प्रत्येक को विद्या के नाम पर पारितोषिक देने के लिए रुपये है आयी, और यह केवल दिखावा ही नहीं था, विद्या से उसे बहुत मुहब्बत थी, उसकी मृत्यु का उसे सच्चा शौक था। विद्या को याद करके बह बहुवा एकान्त भे रो पड़ती, उसकी सूरत उसकी आँखों से कभी न उतरती थी। जब श्रद्धा और बड़ी बहू आदि विद्या की चर्चा करने लगती तो वह अदबदा कर उसकी बातें सुनने के लिए जा बैठती। उनके कटाक्ष और संकेतो की ओर उसका ध्यान नहीं जाता है ऐसे अवसरों पर जब ज्ञानशंकर उसे रियासत के किसी काम के बहाने से बुलाते तो उसे बहुत नागवार मालूम होता है वह कभी-कभी झुंझला कर कहती, जा कर कह दो मुझे फुरसत नहीं है। जरा-जरा सी बातों में मुझसे सलाह लेने की क्या जरूरत है? क्या इतनी बुद्धि भी ईश्वर ने नहीं दी? रियासत! रियासत! उन्हें किसीके मरने-जीने की परवाह न हो, सबके हृदय तो एक-से नहीं हो सकते। कभी-कभी वह केवल ज्ञानशंकर को चिढ़ाने के लिए श्रद्धा के पास घटों बैठी रहती। वह अब उनकी कठपुतली बन कर न रहना चाहती थी। उसकी गौरवशील प्रकृति स्वच्छन्द होने के लिए तड़पती थी। वह इस बंधन से निकल भागना चाहती थी। एक दिन वह ज्ञानशंकर से कुछ कहे बिना ही प्रेमशंकर की कृषिशाला में आ पहुँची और सारे दिन वही रहीं। एक दिन उसने लाला प्रभाशंकर और प्रेमशंकर की दावत की और सारा जेवनार अपने हाथ से पकाया। लाला जी को भी उसके पाक-नैपुण्य को स्वीकार करना पड़ा!

दो महीने गुजर गये। धीरे-धीरे महिलाओ को गायत्री पर विश्वास होने लगा। द्वेष और मालिन्य के परदे हटने लगे। उसके सम्मुख ऐसी-ऐसी बातें होने लगी जिनकी भनक भी पहले उसके कानों में न पड़ने पाती थी। यहाँ तक कि वह इस समाज का एक प्रधान अंग बन गयी। यहाँ प्राय नित्य ही ज्ञानशंकर की चरित्र चर्चा होती और फलत उनका आदर गायत्री के हृदय से उठता जाता था। बड़ी बहू और उनकी बहू दोनो ज्ञानशंकर की द्वेक कथा कहने लगती तो उसका अन्त ही न होता था। श्रद्धा यद्यपि इतनी प्रगल्भा न थी, पर यह अनुमान करने के लिए बहुत सूक्ष्म दर्शिता की जरूरत न थी