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प्रेमाश्रम


गायत्री--तो आप चले जायें। मेरे जाने की क्या जरूरत हैं? मैं अभी यहाँ कुछ दिन और रहना चाहती हूँ।

ज्ञानशंकर ने हताश हो कर कहा-जैसी आपकी इच्छा। लेकिन आपके बिना वहाँ एक-एक क्षण मुझे एक-एक साल मालूम होगा। कृष्णमन्दिर तैयार ही है। वहाँ भजन-कीर्तन में जो आनन्द आयेगा वह यह दुर्लभ है। मेरी इच्छा थी कि अवकी बरसात वृन्दावन में कटती। इस आशा पर पानी फिर गया। आप मेरे जीवन-पथ की दीपक हैं आप ही मेरे प्रेम और भक्ति की केन्द्रस्थल है। आप के बिना मुझे अपने चारों ओर अंधेरा दिखाई देगा। संम्भव है कि पागल हो जाऊँ।

दो महीने पहले ऐसी प्रेमरस पूर्ण बातें सुन कर गायत्री का हृदय गद्दगद्द हो जाता; लेकिन इतने दिनो यहाँ रह कर उसे उनके चरित्र का पूरा परिचय मिल चुका था। वह साज जो बेसुर अलाप को भी रसमय बना देता था अब बन्द था। वह मंत्र का प्रतिहार करना सीख गयी थी। बोली----यहाँ मेरी दशा उससे भी दुस्सह होगी, खोयी-खोयी सी फिरूंगी, लेकिन करूँ क्या? यहाँ लोगो के हृदय को अपनी ओर से साफ करना आवश्यक है। यह वियोग-दुख इसलिए उठा रही हूँ, नहीं तो आप जानते है यहाँ मन बहलाव की क्या नाम है? देह पर अपना वश है, उसे यही रखूंगी। रही सन, मन एक क्षण के लिए भी अपने कृष्ण का दामन न छोड़ेगा। प्रेम-स्थल में हजारों कोस की दूरी भी कोई चीज नहीं है, वियोग में भी मिलाप का आनन्द मिलता रहता है। हाँ, पत्र नित्य प्रति लिखते रहिएगा, नही तो मेरी जान पर बन जायेगी।

ज्ञानशंकर ने गायत्री को भेद की दृष्टि से देखा। यह वह भोली-भाली सरला गायत्री न थी। वह अब त्रिया-चरित्र में निपुण हो गयी थी; दगी का जवाब दगी से देना सीख गयी थी। समझ गये कि अब यहाँ मेरी दाल के गलेगी। इस बाजार में अब खोटे सिक्के न चलेगे। यह बीज जीतने के लिए कोई नयी चाल चलनी पड़ेगी, नये किले बाँधने पड़ेगे। गायत्री को यहीं छोड़ कर जाना शिकार को हाथ से खोना था। किसी दूसरे अवसर पर यह जिक्र छेड़ने का निश्चय करके वह उठे। सहसा गायत्री ने पूछा, तो कब तक जाने का विचार है? मैरे विचार में आपका प्रात काल की गाड़ी से चला जाना अच्छा होगा।

ज्ञानशंकर ने दीन भाव से भूमि की ओर ताकते हुए कहा---अच्छी बात है।

गायत्री---हाँ, जब जाना ही है तब देर न कीजिए। जब तक इस मायाजाल में फैंसे हुए हैं तब तक तो यहाँ के राग अलापने ही पड़ेगे।

ज्ञानशंकर- जैसी आशा।

यह कह कर वह मर्माहत भाव से उठ कर चले गये। उनके जाने के बाद गायत्री को वही खेद हुआ जो किसी मित्र को व्यर्थ कष्ट देने पर हमको होता है, पर उसने उन्हें रोका नहीं।